शनिवार, 26 सितंबर 2009

भारत के ह्रदय (मध्य प्रदेश ) में कुछ दिन -- इंदौर / उज्जैन यात्रा

अपनी यात्राओं के क्रम से थोडा भटक कर पिछले हफ्ते की यात्रा का यह वृत्तांत लिख रहा हूँ | कुछ पुराने संस्मरण और हैं वो इसके बाद समय मिलने पर लिखूंगा|

बिलकुल अचानक ही हो गयी ये यात्रा और सच मुच बीते दिनों की छोटे शहरों की यादों को ताज़ा कर गई | दरअसल शुक्रवार की दोपहर तक हम लोग हरिश्चंद्र गढ़ के ट्रेक के लिए तैयार बैठे थे | पहले मयंक , अमोल और मेरा जाने का विचार था परन्तु अमोल को कुछ काम आ जाने की वजह से हम दो लोग ही बचे | दोपहर में मयंक ने बोला की हम लोगों को हरिश्चंद्र गढ़ से जल्दी वापस आना पड़ेगा क्योंकि उसको रविवार की दोपहर में इंदौर के लिए निकलना है |
दरअसल इंदौर में स्काई-डाइविंग का इवेंट होना था | यदि आप में से कोई इच्छुक हों तो कृपया ज्यादा जानकारी के लिए
www.skydivingindia.com देखें | अचानक मेरे दिमाग में ख्याल आया की क्यों ना इंदौर ही घूम लिया जाये | इन्टरनेट पर थोडा बहुत खोजने के बाद अचानक हम दोनों ने शाम को इंदौर निकलने का विचार बना लिया | अब नए प्लान के मुताबिक शाम के ५ बजे हम दोनों इंदौर घूमने का मन बना चुके थे |

मुंबई से इंदौर :
शाम को ५:३० पर ऑफिस से निकल कर हम लोग मयंक के घर बान्द्रा पहुंचे | मैं अपने बैग में कुछ सामान जो ट्रेक के लिए चाहिए था ले कर ही चला था | अब प्रश्न था की जाना कैसे है क्योंकि टिकेट तो था नहीं | मयंक के घर पर इन्टरनेट भी नहीं चल रहा था | राजीव (हमारे सहकर्मी ) के घर पर जा कर इन्टरनेट पर ट्रेन खोजने की कोशिश की तो पता चला की सारी ट्रेन जा चुकी थी | अब प्राइवेट ट्रेवल एजेंट्स को फोन किया तो यहाँ भी निराशा ही हाथ लगी | सारी बसें भी ७ बजे तक जा चुकी थी | थोडा सोचने के बाद हमने निर्णय लिया की दिल्ली की कोई ट्रेन पकड़ कर रतलाम तक जा सकते हैं और वहां से इंदौर | दिल्ली के लिए अगली ट्रेन गोल्डन टेम्पल एक्सप्रेस थी जो ९:२५ पर मुंबई सेंट्रल से निकलती थी | हमें जनरल का टिकेट ले कर ही जाना था | झटपट टैक्सी पकड़ हम ८:४५ पर मुंबई सेंट्रल पहुँच गए | मुंबई सेंट्रल के बाहर एक ट्रेवल एजेंट से बस का पता किया तो वो बोला की हम शिरपुर तक एक बस से निकल सकते हैं और वहां से इंदौर ४ घंटे में पहुँच जायेंगे | तुंरत टिकेट ले लिया और अमोल ( जो की महाराष्ट्र से ही है ) को फोन कर के पता किया की शिरपुर कौन सी जगह है | उसने बताया की मध्य प्रदेश की सीमा की तरफ ही है तो तसल्ली हुई |
सुबह आंख खुली तो हम लोग धुले में थे | शिरपुर, धुले जनपद में ही एक तालुका है| धुले से ५० किलोमीटर आगे ही शिरपुर था और हम ७ बजे सुबह शिरपुर पहुँच गए | यहाँ पहुँच कर पता चला की महाराष्ट्र राज्य परिवहन की एक बस ८ बजे इंदौर जायेगी और ४ घंटे में हम पहुँच जायेंगे | लेकिन हम तकरीबन ३ बजे इंदौर पहुंचे |

इंदौर में पहला दिन :
इंदौर पहुँचने पर सरवटे बस स्टेशन के सामने ही कुछ होटल दिखे | एक दो जगह पता करने के बाद न्यू स्टैण्डर्ड होटल में मात्र २३५ रुपये प्रतिदिन पर एक अच्छा सा कमरा मिल गया | अब नहा धो कर खाना खाया और इंदौर दर्शन के लिए निकल पड़े | यहाँ से कुछ दूरी पर ही राजवाड़ा है |
राजवाड़ा:

इंदौर होलकर राजाओं की राजधानी थी और राजवाड़ा होलकर राजाओं द्वारा बनवाई गई एक भव्य ईमारत है | शहर के ह्रदय
में स्थित यह ईमारत होलकर वंश के वैभव और कलाप्रेम को दिखाती है | प्रथम तीन मंजिलें पत्थर की बनी हुई हैं और उपर की चार मंजिलों में लकड़ी का ज्यादा प्रयोग है | राजवाडा स्थापत्य कला की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है | यह मराठा , मुग़ल , राजपूत और इतावली कला का मिश्रित रूप है | भवन का दरबार हॉल फ्रेंच बेसेलिक शैली में बना हुआ है |
यहाँ जाने के बाद हमें पता चला कि भवन के भीतर जाना मना है | यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था हमारे लिए | पूछने पर यहाँ के चौकीदार ने बताया कि शहर के प्रेमी युगल इस खूबसूरत भवन के कोने कोने में पड़े रहते थे और कई बार कुछ लोगों ने यहाँ से आत्महत्या का प्रयास भी किया | इसके बाद सरकार ने इसे आम लोगों के लिए बंद करना ही उचित समझा |
राजवाडे के पीछे के हिस्से में होलकर वंश के कुल देवता (मल्हारी मार्तंड - शिव ) का मंदिर है | इस मंदिर के भीतर
जाने पर होलकर वंश के इतिहास को दर्शाते हुए बहुत से चित्र लगे हुए हैं | साथ ही अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ विशेषकर कुलदेवता मल्हारी मार्तंड (शिव) के अनेक रूपों में मूर्तियाँ हैं | मंदिर के गर्भ गृह में शिव का मंदिर है|

राजवाडे में १-२ घंटे बिताने के बाद हम होल्कर वंश के इतिहास से परिचित हो चुके थे | अब अँधेरा हो चुका था इसलिए कुछ और जगहें देखने के विचार को त्याग कर हम इंदौर के बाजारों से होते हुए वापस होटल की तरफ चल दिए | चूँकि यात्रा की थकान थी इसलिए भोजन के बाद तुंरत नींद आ गई |

दूसरा दिन :
दूसरे दिन हमारा विचार था ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर दोपहर तक वापस इंदौर आने का और फिर शहर के बाकी दर्शनीय स्थल देखने का | प्लान के मुताबिक हम सुबह ८ बजे होटल से ओंकारेश्वर के लिए निकल पड़े |
ओंकारेश्वर : ओंकारेश्वर इंदौर से ७५ किलोमीटर दूर एक ज्योतिर्लिंग है | नर्मदा और कावेरी के संगम पर एक पर्वतनुमा टापू है जो की उपर से देखने पर ॐ का आकर लिए हुए है | इतिहास में इस पर्वत का वैदर्य मणि पर्वत के नाम से उल्लेख मिलता है | इसके उत्तर में कावेरी और दक्षिण में नर्मदा बहती है | यहीं पर नर्मदा के किनारे पर ओंकारेश्वर मंदिर है | नदी के दूसरे किनारे पर ममलेश्वर मंदिर है | यह दोनों मंदिर मिलकर ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग कहे जाते हैं |

तकरीबन १२ बजे हम लोग ओंकारेश्वर बस स्टैंड पे उतरे | थोडा आगे चलने पर ही नर्मदा नदी पर पुल पार कर हम मंदिर के पास पहुँच गए | यहाँ जा कर पता चला की संगम थोडा दूर है और इस पर्वत की परिक्रमा का मार्ग भी बना हुआ है | परिक्रमा मार्ग में कुछ पुराने मंदिर भी पड़ते हैं | हमने सोचा की पहले संगम पर स्नान कर लिया जाये और फिर आगे की सोचेंगे | करीब १ किलोमीटर चलने पर ही हम संगम पहुँच गए | यहाँ पर स्नान करने का मज़ा ही कुछ और था | पाप तो धुल ही रहे थे और धूप में ठंडे पानी में पड़े रहने का आनंद |
यहाँ कुछ देर बिताने के बाद अब समय था परिक्रमा मार्ग के मंदिर देखने का | धूप बहुत तेज़ थी और अब उपर चढ़ना था | यहाँ से अनेक मंदिर शुरू हो गए थे | सबसे पहले द्वारिकाधीश ऋणमुक्तेश्वर महादेव का मंदिर मिला | इसके कुछ और उपर जाने पर गौरी सोमनाथ मंदिर था | थोडा और आगे चल कर एक छोटी सी चाय की दुकान दिखी तो चाय पीने बैठ गए|
इस चाय की दुकान के मालिक छगन लाल जी से भी कुछ देर तक बातें हुई | उनका दावा था कि उनके पास एक ऐसा पम्प बनाने का तरीका है जो कि बिजली से नहीं चलेगा | यह पानी की शक्ति से ही चलेगा | इसके बाद उन्होंने कई तर्क दिए और दिखाया कि कैसे उन्होंने मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और कुछ विश्व विद्यालयों तक जा कर अनुदान की मांग की परन्तु अब तक कुछ नहीं हुआ | कुछ ३०-४० हज़ार रूपये की लागत से वो अपना चलता हुआ मॉडल बना पाएंगे | हमे भी लगा की आखिर कोई इतना हाथ पाँव मार रहा है तो बातों में कुछ तो सच होगा ही | बातो बातो में लग भी रहा था की जानकारी तो थी उनको | खैर करीब १ घंटा वहां बैठे बैठे हो गया था तो अब आगे चलने की सोची |

थोडा आगे चलने पर बहुत पुराने कुछ द्वार मिले | एक धर्मराज द्वार था | थोड़े बहुत ही अवशेष बचे थे यहाँ पर | कुछ दूर और चलने पर एक चाँद सूरज द्वार था | चाँद सूरज द्वार भी वहां के स्थानीय लाल पत्थरो का बना हुआ था और इस पर नक्काशी बहुत खूबसूरत थी | हम सोच रहे थे की यहाँ पर ऐसे द्वार क्यों बने हुए हैं |


बारहद्वारी सिद्धनाथ मंदिर
थोडा और आगे एक बहुत ही खूसूरत मंदिर दिख पड़ा | यह था बारह द्वारी सिद्धनाथ मंदिर | इस मंदिर के भी थोड़े ही
अवशेष बचे थे लेकिन पत्थरों पर नक्काशी बहुत पुरानी कला को दिखाती थी | यहाँ के पुजारी ने बताया कि यह महाभारत कालीन शिव मंदिर है और इसके चारो तरफ करीबन आधा एक किलोमीटर तक १२ द्वार थे | बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था ये मंदिर जिसके अवशेष अभी भी हैं | इसीलिए इसका नाम बारहद्वारी सिद्धनाथ मंदिर है | अब कला का यह अवशेष पुरातत्व विभाग के पास है | इस मंदिर के प्रांगण में बैठने
पर बिलकुल शांत वातावरण और सामने का सुन्दर दृश्य आपके सामने होता है | इसके सामने नर्मदा पर एक बाँध बना हुआ है तो दूर दूर तक पानी और जंगल दिखते हैं | यहाँ पर भी एक घंटा बैठने के बाद अब नीचे उतरने का समय हो चला था|
पहाडी से थोडा सा नीचे उतरकर ओंकारेश्वर महादेव का मंदिर आ जाता है | यहाँ पर दर्शन करने के बाद, वापस नर्मदा का पुल पार कर हम ओंकारेश्वर नगर पहुँच गए | यहाँ खाना खाया और बस पकड़ कर रात्रि ८ बजे हम इंदौर पहुँच गए | हमारा विचार तो दिन में वापस लौट कर इंदौर घूमने का था परन्तु ओंकारेश्वर में ही पूरा दिन लग गया |

तीसरा दिन :
आज मयंक को स्काई-डाइविंग के लिए जाना था परन्तु सुबह पता चला कि कुछ सुरक्षा कारणों की वजह से गृह मंत्रालय द्वारा आयोजको के विमान को उडान भरने की अनुमति नहीं मिल पाई है| आज के दिन हमने इंदौर की बची हुई जगहों को घूमने का विचार बनाया और दोपहर तक उज्जैन निकल जाने की सोची |
सबसे पहले हम लालबाग का महल देखने पहुंचे | यह महल होल्कर वंश द्वारा बनायीं गई बर्किन्घम पैलेस कि अनुकृति है और होल्कर वंश के कलाप्रेम और वैभवशाली इतिहास की द्योतक है | इसके मुख्य द्वार पर लोहे के बड़े गेट लगे हुए हैं और दो शेर बने हुए हैं | लालबाग पैलेस में सोमवार को साप्ताहिक अवकाश रहता है और हमें फिर से निराशा ही हाथ लगी | इसके बाद इंदौर के प्रसिद्द अन्नपूर्णा मंदिर और बड़े गणपति मंदिर के दर्शन के बाद हम लोग प्रसिद्द कांच के मंदिर की तरफ चल पड़े |
कांच का मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत दिगंबर जैन मंदिर है |
इस मंदिर के भीतर फर्श से दीवारों तक पूरा कांच का काम है | विभिन्न रंगों में कांच के टुकडो की बहुत ही खूबसूरत कला इस मंदिर को दर्शनीय बना देती है |

इसके बाद हम इंदौर की शीशमहल बाज़ार से होते हुए कृष्णपुरा की छतरियां देखने निकल पड़े | राजवाडे के पास बनी हुई ये छतरियां भी स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना हैं | ये लाल रंग के पत्थर से बनी हुई हैं और दीवारों और स्तंभों पर

बहुत ही महीन नक्काशी है | पुरातत्व विभाग के पास होने के बावजूद भी यहाँ की स्थिति बड़ी ही ख़राब लगी | अच्छे रखरखाव से ही हम इन अमूल्य धरोहरों को संरक्षित रख सकते हैं |

इसके बाद हम वापस होटल पहुंचे और खाना खाने के बाद कुछ देर आराम किया | करीब तीन बजे हम होटल छोड़ कर उज्जैन के लिए निकल पड़े | सरवटे बस स्टेशन से उज्जैन के लिए बसे हमेशा मिलती रहती हैं| इंदौर से उज्जैन की दूरी ५५ किलोमीटर है |
शाम को उज्जैन पहुँच कर रेलवे स्टेशन के पास में ही होटल अजय में २५० रूपये प्रतिदिन पर एक कमरा मिल गया | कुछ देर आराम करने के बाद शाम को हम उज्जैन घूमने निकल पड़े | नवरात्री होने की वजह से एक जगह गरबा नृत्य का आयोजन था | कुछ देर वो देखकर खाना खाने के बाद वापस होटल आ गए| अगले दिन सुबह तडके २ बजे उठ कर महाकालेश्वर की प्रसिद्द भस्म आरती में शामिल होने का विचार बनाया |

चौथा दिन :
सारी योजनाओं पर पानी तब फिर गया जब हम दोनों सुबह ७ बजे तक होटल के कमरे में सोये ही रह गए और आरती का प्लान धरा का धरा रह गया | खैर सुबह उठ कर थोडी देर खुद को कोसने के बाद हम महाकालेश्वर के दर्शन के लिए निकल पड़े |

महाकालेश्वर उज्जैन में स्थित शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है | यह मंदिर भी बहुत पुराना बना हुआ है और पत्थरो पर सुन्दर नक्काशी है | मंदिर के भीतर कैमरा ले जाना मना है तो दर्शन के बाद बाहर से ही कुछ फोटो ले कर हम राम घाट की तरफ चल पड़े | थोडी ही दूर पर राजा विक्रमादित्य की आराध्य दुर्गा का मंदिर है | उज्जैन कभी विक्रमादित्य की राजधानी हुआ करती थी और इसका नाम अवंतिकापुरी था | आज भी मुंबई से उज्जैन के लिए अवंतिका एक्सप्रेस चलती
है | करीब एक किलोमीटर दूर क्षिप्रा नदी के तट पर रामघाट है | कुछ देर यहाँ बैठने के बाद हम भृत हरी गुफाओं की तरफ चल दिए |

भृत हरी की गुफाये उज्जैन से थोडा बाहर स्थित हैं | ऑटो रिक्शा पकड़ कर आधे घंटे में हम यहाँ पहुँच गए| इन गुफाओं के साथ कुछ पौराणिक कथाये जुडी हुई हैं | जमीन के नीचे यहाँ पर दो गुफाये हैं जिसके अन्दर नीलकंठेश्वर (शिव) और भृत हरी के मंदिर हैं |
बाहर निकल कर योगी गोरक्ष नाथ का मंदिर औरधूनी है |
दोपहर हो गई थी और अब हमे वापस मुंबई जाने का सोचना था | चूँकि हमारे पास कोई टिकेट नहीं था इसलिए इंदौर जा कर बस का पता करना था | वापस आ कर होटल छोड़ा और इंदौर के लिए बस पकड़ ली | ३ बजे करीब इंदौर पहुँच कर शाम की बस का टिकेट लिया |
इसके बाद एक जगह स्वादिष्ट साग पूरी खायी | सरवटे बस स्टेशन के पास ही इंदौर की प्रसिद्द घमंडी लस्सी और कुल्फी की दुकान है | लस्सी पीने की तो जगह थी नहीं पेट में तो स्वादिष्ट कुल्फी खायी और फिर थोडा बाज़ारों की तरफ निकल पड़े |
हमारी बस ५ बजे जाने वाली थी और जैसा की हमेशा प्राइवेट ट्रेवल्स की बस के साथ होता है, यह बस ७ बजे चली | अगले दिन सुबह ११ बजे हम मुंबई पहुँच गए | मध्य प्रदेश की यह यात्रा अविस्मरणीय रही और जल्द ही राजस्थान या कच्छ के रण घूमने का प्लान बन रहा है |

फोटो एल्बम यहाँ देखें ...(सौजन्य : मयंक जोशी )

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

भीमाशंकर ट्रेक

ढाक बाहिरी ट्रेक के बाद, कुछ सप्ताहांत तक ऐसे काम पड़ गए कि अगले ट्रेक के लिए जाने में कुछ विलम्ब सा होने लगा और उसके बाद गर्मी के मौसम ने तो विराम ही लगा दिया ट्रेक पे | सह्याद्रि में गर्मी के मौसम में ट्रेक करना मतलब मौत से जूझना ही समझिये | एक तो पानी का अकाल और सूखी चट्टानें जो धूप से तपने लगती हैं |

योजना :
एक बार जुलाई का महीना आते ही हम सब के अन्दर का ट्रेकर फिर से जागने लगा | परन्तु इस साल के मानसून से तो आप सब वाकिफ ही हैं | हर सप्ताहांत पर मौसम विभाग की भविष्यवाणी आती की मानसून आएगा पर फिर हताशा ही हाथ लगती | कुछ हफ्तों तक रुकने के बाद आखिर हमने सोचा कि अब तो कुछ भी हो जाना ही है | यह सोच कर कि कोई बात नहीं मौसम तो मानसून का है और हो सकता है जंगलों में थोडा बहुत पानी तो बरस ही गया होगा हमने अगला ट्रेक भीमाशंकर का करने की योजना बना डाली | इस बार जाने वालों में हम तीन ही लोग थे , मैं सौरभ और मयंक | लेकिन इस ट्रेक में पानी की कमी ने इस ट्रेक को यादगार बना दिया | अब तक के सबसे थका देने वाले इस ट्रेक के बारे में अब भी हम लोग सोचते हैं तो वही दृश्य याद आता है |

भीमाशंकर :

भीमाशंकर पुणे जिले में स्थित एक ज्योतिर्लिंग है | ३२५० फीट की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर ट्रेकिंग के शौकीन लोगों को भी आकर्षित करता है| ज्योतिर्लिंग के आस पास और भी कुछ जगहें देखने लायक हैं जिनमें से नागफनी बहुत प्रसिद्द है | मुंबई और पुणे से राज्य परिवहन की बसें भी यहाँ तक जाती हैं| लेकिन जंगलों से जाने वाले रास्ते पर ट्रेकिंग का मज़ा ही कुछ और है |

मुंबई से कर्जत :
मुंबई से भीमाशंकर जाने के लिए कर्जत होकर जाना पड़ता है | इस बार फिर से हमने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से ००:३८ की आखिरी लोकल पकड़ी जो कि ३.१५ के करीब कर्जत पहुंचती है | कर्जत पहुँच कर चाय पीने के बाद हम तुंरत कर्जत बस स्टेशन कि तरफ चल दिए | बस स्टेशन पास ही है और पैदल चल कर १०-१५ मिनट में आराम से पहुँच सकते हैं | कर्जत बस स्टेशन पर इस समय कोई नहीं था क्योंकि अभी बारिश न होने की वजह से लोगों ने ट्रेक पे जाना प्रारंभ नहीं किया था | जाने से पहले इन्टरनेट पर जानकारी मिली थी की यहाँ से खान्डस गाँव , जहाँ से ट्रेक शुरू होता है के लिए ६ बजे पहली बस निकलती है | लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि यह बस सेवा अब बंद हो चुकी है और हमको वहां तक के लिए कोई बस नहीं मिलेगी | तो फिर कुछ समय हमने बस स्टेशन में एक नींद पूरी कर ली |

कर्जत से खान्डस :
बस स्टेशन के प्रभारी ने बताया कि दूसरा तरीका है कि कर्जत से मुरबाड की बस निकलती है सुबह ७ बजे, जिसमें कशेडे (मराठी : कशेळे ) गाँव तक जा कर वहां से फिर खान्डस के लिए टमटम ( ६ सीट वाला टेम्पो) पकडा जा सकता है | यह बस पकड़ कर करीब आधे घंटे में हम कशेडे पहुँच गए | वहां पर एक एक कप चाय और गरमा गरम कांदा भजिया ( प्याज़ की पकोडियां ) का आनंद लिया | तभी यहाँ एक मारुती वैन मिल गई जो की १०० रूपये में हमको खान्डस ले जाने के लिए तैयार हो गया| करीब ८ बजे हम लोग खान्डस गाँव पहुँच गए |

ट्रेक का प्रारंभ :

वैसे पानी की कमी की आशंका तो थी ही इसलिए अपने हिसाब से ५ लीटर पानी ले कर ही चले थे परन्तु यहाँ से फिर २ बोतल पानी और रख लिया | और गाँव में कुछ पूछताछ करने के उपरांत हम लोग आगे बढ़ चले | खान्डस गाँव से कुछ दूर तक छोटी सी सड़क है जहाँ एक छोटा सा गाँव फिर पड़ता है | यहाँ पर एक छोटी सी बरसाती नदी पड़ती है
जिसमें कुछ रुका हुआ पानी था | हमारी एक बोतल खाली हो चुकी थी सो यहाँ फिर गंदे रुके हुए पानी से भर ली | सोचा कहीं न कहीं काम ही आ जायेगा | करीब ८.३० हो रहा था और धूप चढ़ने लगी थी | यहाँ पर भीमाशंकर जाने के लिए रास्ता २ रास्तों में बंट जाता है , गणपति घाट और सीढ़ी घाट ,
गणपति घाट लम्बा और आसन रास्ता है जबकि सीढ़ी घाट से बहुत दुर्गम चढाई है परन्तु यह छोटा रास्ता है | सीढ़ी घाट के रास्ते में २-३ जगहों पर चट्टानों को पार करने के लिए लोहे की संकरी सीढियाँ लगी हुई हैं| भीमाशंकर से पहले एक मैदान पड़ता है और यहाँ पर ये दोनों रास्ते मिल जाते हैं |
हमेशा कठिन की चाह की वजह से हमने सीढ़ी घाट का रास्ता चुना और गाँव में पूछ कर उस तरफ चल दिए | गाँव वालों ने साथ में गाइड बनकर चलने का प्रस्ताव रखा परन्तु फिर कुछ साहसिक करने की इच्छा थी सो मना कर दिया | खैर इस गाँव से आगे बढे और कुछ दूर तक चढ़ते रहने के बाद एक थोडा समतल जगह मिली | यहाँ पर थोडा विराम लिया और ट्रेक के कपडे निकाल लिए गए | चूँकि यह ट्रेक थोडा कठिन और लम्बा था इसलिए इस जगह से पूरे जोश के साथ ट्रेक प्रारंभ करने का मन बनाया गया और चल पड़े | सामने घना जंगल शुरू होता था और यहीं कहीं आगे चलकर चट्टानों पर थोडी मुश्किल चढाई भी होनी थी |

कदम सहमे :
अभी मुश्किल से १० कदम ही चले होंगे कि अचानक कुछ आवाजें सुनाई दी | ये कुछ जानवरों की आवाजें थी | हमने पढ़ा था की इस जंगल में तेंदुओं का भी थोडा भय है तो तुंरत सहम जाना स्वाभाविक ही था | इस पर मयंक की राय कि यह बंदरो कि आवाज़ नहीं है और फिर सौरभ बोला कि उसने एक जगह पढ़ा था कि एक ट्रेकिंग ग्रुप पर हमला भी हो चुका है तेंदुओं का | बस फिर क्या था एक बार तो सबके होश उड़ गए कि आगे बढा जाये कि नहीं | अब सौरभ बोला कि क्यों न नीचे गाँव तक वापस चल कर किसी गाइड को साथ ले लिया जाय | परन्तु वापस नीचे जाना और और फिर उपर आना, समय तो व्यर्थ होता ही साथ ही इतना और चढ़ना पड़ता | फिर मयंक ने थोडा उत्साह बढाया और हम आगे बढ़ चले | थोडा आगे चलने पर एक सूखा हुआ बरसाती नाला मिला और इसको पार करते ही सबकी हंसी ऐसी छूटी कि पूछिए मत | दरअसल जो आवाजे सुन के हमारे होश फाख्ता हो गए थे वो कुछ मवेशी जंगल में घास चर रहे थे | सामने एक गायों का झुंड देख कर तसल्ली हुई और फिर सब कोसने लगे अपने आप को कि क्या क्या सोच लिया और इतना वक़्त भी बेकार किया | अब हंसते खिलखिलाते आगे बढ़ चले |

थोडा आगे चले ही होंगे कि झाडियों में उलझने लगे | यहाँ जंगल थोडा घना था और अब रास्ते का कोई अंदाजा नहीं | कुछ दूर झाडियों में रास्ते बनाने कि कोशिश भी की कि शायद कहीं दिख जाये परन्तु कुछ नहीं दिखा | अभी तो शुरुवात ही थी और रास्ता ही भटक गए | थोडी चिंता कि बात थी पर इधर उधर देखते रहे कि किधर जाना है | तभी कुछ
महिलाओं की आवाजें सुनाई दी | थोडा वापस आ कर देखने की कोशिश की तो पता चला कि वो दूसरी तरफ जा रहे थे | मयंक मुझे बोला कि मैं दौड़ के जाऊँ और पता करूँ | मैं उनकी तरफ दौड़ने लगा साथ ही आवाज़ भी दे रहा था | परन्तु वो गाँव के लोगों कि रफ़्तार कहीं ज्यादा थी | आखिर में, मैं उनसे थोडा सा दूर था तो चिल्लाया " मौशी ! भीमाशंकर कड़े वाटा कुठे आहे ?" (थोडी बहुत मराठी सीख गया हूँ इतने दिन गाँव में ट्रेक कर कर के )| परन्तु इसके बाद जो उन्होंने बोला तो वो मुझे समझ नहीं आया लेकिन ये समझा कि हाँ यही है | तब तक मयंक और सौरभ भी आ चुके थे | फिर थोडा देर उन लोगों के पीछे पीछे चलने के बाद वो लोग रुके तो एक लड़के से पूछा| उसने बताया कि ये सीढ़ी घाट वाला रास्ता नहीं है और पहले हम लोग सही दिशा में जा रहे थे | बस अब फिर से सबके सीढ़ी वाला खतरनाक रास्ता देखने के सपने टूट गए क्योंकि हम बहुत आगे आ चुके थे | यह रास्ता एक तीसरा रास्ता था जो सीढ़ी घाट से थोडा आसान था और एक बड़े से बरसाती नाले पर ही चलते जाना था | चूँकि अभी बरसात नहीं थी तो आप इस पर चल सकते थे | उन लोगों ने बताया कि उनके पास सामान होने कि वजह से वो सीढ़ी घाट से नहीं जा सकते | खैर अब हमने यही रास्ता पकड़ चलने का निश्चय किया और थोडा विराम लिया | अब तक वो लोग जा चुके थे और आगे हमें अकेले ही जाना था |

दोपहर का भोजन :
इन पथरीली चट्टानों में चलते चलते उपर चढ़ते रहे | रास्ता खोजना आसान था क्योकि पानी के रास्ते को देखते हुए ही चलना था | आखिर करीब ११ बजे हम लोग एक मैदान पर पहुँच गए | जैसा कि पढ़ा था उस मैदान पर गणपति घाट और सीढ़ी घाट वाले रास्ते मिल जाते हैं इसलिए अब हम सही रास्ता खोजने लगे | परन्तु ऐसा तो कुछ भी नहीं दिखा | फिर भी उपर देखा तो बहुत दूर एक चोटी दिखाई दी जो अनुमान लगाया कि भीमाशंकर ही होगा | अगर वहां तक जाना था तो वो वाकई बहुत ही उपर था | यहाँ पर एक जगह खोज कर आग जलाई गई |
बर्तन निकाल कर मैगी बनाई और खा कर सोचा कि कुछ देर छाँव में आराम कर लिया जाये | ऐसी धूप में चलते चलते अब पानी भी कुछ २ लीटर करीब बचा था | अचानक सौरभ जहाँ लेटा था वहां बिच्छू दिखाई दिया | वो झट से उठा तो एक दो और बिच्छू नज़र आ गए | अब तो हमारे आराम करने का इरादा भी बदल गया | उठे और उपर देखते हुए चल पड़े कि पता नहीं कितना और चलना है | अब आगे रास्ता दिख रहा था सो चलते रहे | थोडा दूर चल कर एक छप्पर दिखा जो शायद चाय की दुकान हुआ करती थी और खांड्गे जी ने भी ऐसा बताया था | इसके आगे कुछ दूर तक रास्ता आसान था और जंगलों से होकर जाता था | दरअसल यह जंगल भीमाशंकर वन्यजीव विहार के अन्दर आता है |
यह रास्ता भीमाशंकर पहाडी के दूसरी और ले कर जाता है | अब हम कुछ समतल से रास्ते पर चलते जा रहे थे और बीच बीच में उपर देखते तो वही शिखर नज़र आता | अब तक कोई मिला भी नहीं था की कुछ पूछ लिया जाय |

कठिन चढाई :
करीब १ घंटा चलने के बाद कुछ छप्पर से दिखाई दिए | जैसा की हम लोग सोच रहे थे इसके बाद एक कठिन चढाई होगी अब वो शुरू हो गई थी | थोडा चलने के बाद एक जगह एक बोर्ड दिखाई दिया | कोई मंदिर और सन्यासी का आश्रम था एक तरफ और एक रास्ता उपर की तरफ | अब तक पानी भी एक ही बोतल बचा था | कुछ देर सोचते रहे की किस तरफ जाएँ | हो सकता था की ये आश्रम पास में हो और पानी मिल जाये या फिर पता नहीं कहीं और न निकल जाएँ | फिर फैसला लिया की उपर ही चला जाये | अब असली चढाई शुरू हुई जो की तिलमिलाती धूप में और भी कठिन हो गई थी | थोडा चलते और फिर आराम, फिर चलना | अब जंगल भी ख़त्म हो चुका था | तब तक कुछ लोग आते दिखाई दिए | पता चला कि १ घंटे करीब और चलना है | लेकिन गाँव वालों से अपनी तुलना कहाँ | हम १:३० घंटा सोच कर चढ़ने लगे | आधे घंटे बाद फिर कुछ लोग दिखे | उन्होंने फिर बोला कि अभी एक घंटा है | अब तो हम समझ चुके थे कि कितना भी वक़्त लग सकता है | थकान से हालत एकदम ख़राब हो चुकी थी | यहाँ पर कुछ देर बैठे और पानी निकला तो बस आधा लीटर ही बचा था | यहाँ से नीचे एक छोटा सा गाँव भी दिखने लगा जो हम छोड़ आये थे | एक बार फिर गलत फैसला लिया था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था | हमारी हालत का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि हम लोगों ने एक बार ये भी सोच लिया कि इस पानी के ३ हिस्से कर लेते हैं और अपना अपना रख लें | लेकिन हंसी मजाक में सोचा कि देखा जायेगा और वहीँ पर वो पानी ख़त्म कर दिया गया |

सीधी चट्टान और संकरा रास्ता :
कुछ देर धीरे धीरे चढ़ते रहने के बाद फिर एक और जगह ऐसी आई कि वहां बस ६०-७० डिग्री की चट्टान पर तिरछा चलना है और नीचे खाई | यहाँ पर हमको एक आदमी अकेला भीमाशंकर जाता हुआ मिला जो की शायद अपने किन्ही पापों का प्रायश्चित करने जा रहा था | वो भी थक कर चूर हो चुका था अब तक | इस रास्ते पर एक बार सौरभ का पैर भी डगमगा गया | अब तो उसके लिए इसे पार करना और भी मुश्किल हो गया था | धीरे धीरे इसे पार करने के बाद थोडा और चल कर फिर जंगल शुरू हुआ तो राहत की सांस ली | लेकिन हमको एक घंटा हो चुका था और अब तक कोई सुराग नहीं दिख रहा था भीमाशंकर का | अब तो पानी भी नहीं था | अब थोडी दूर तक चढाई जंगल में थी परन्तु हम इतना थक चुके थे कि अब मुश्किल होता जा रहा था |

जंगली फल खाने का मज़ा :
कुछ दूर और चढ़े तो एक जगह बहुत सारे जंगली फल पड़े दिखाई दिए | कुछ नींबू के जैसे ही थे | इस पर मयंक ने बोला कि ये बंदरों के खाए हुए हैं और अगर बन्दर ने खाए हैं तो जहरीले नहीं होंगे और हम भी खा सकते हैं | भूख और प्यास दोनों ही हावी हो चुकी थी हम पर | मयंक ने जरा सा चखा और बोला कि ये मीठा है | इतना सुनना था और सौरभ (जैसा कि खाने के लिए वो मशहूर है ) ने उठाया और गटक गया पूरा | इसके बाद उसका चेहरा देखने लायक था | एक बार मुह में जाने के बाद वो इतना कडुआ था कि मत पूछिए | अब वो डर भी रहा था कि कहीं जहरीला न हो | लेकिन भगवान के शुक्र से वो बच ही गया |
अब तो चलते चलते करीब २ बजने वाला था और भीमाशंकर का अब तक कोई निशान नहीं दिखा था | थोडा और चल कर एक जगह आराम करने के लिए बैठे कि अचानक मयंक को याद आया कि एक बोतल पानी है | वो गन्दा पानी जो हमने गाँव के पास भरा था | दरअसल इस पानी में कपडे धोते हुए लोग भी दिखे थे | लेकिन मयंक की हालत ऐसी थी कि वो ये पानी भी पी गया | अब तो समझ ही नहीं आ रहा था कि कैसे चल पाएंगे | थोडा दूर और यही कठिन चढाई चड़ने के बाद आखिर कर अब कुछ दिखने लगा था | हम भीमाशंकर के पास थे और अब समतल रास्ते पर ही चलते जाना था | आखिरकार करीब २.३० पर हम भीमाशंकर पहुँच गए |

यहाँ पर कुछ बोर्ड दिखाई दिए नागफनी , बॉम्बे पॉइंट , हनुमान तालाब आदि | सबसे पहले हमने एक छोटे से ढाबे में बैठ कर पानी पिया फिर स्वादिस्ट मिस्सल पाव से पेट भरा और अब थोड़े आराम के बाद सोचा कि आज बाकी जगहे घूम लेते हैं और कल सुबह मंदिर के दर्शन कर वापसी की जायेगी|

नागफनी पॉइंट :
भीमाशंकर से थोडी ही दूर पर है नागफनी पॉइंट | विशालकाय पहाड़ पे चढ़ने के बाद दूसरी तरफ अचानक बहुत गहरी खाई| और यहाँ पहुँचते ही सारी थकान मानो गायब हो गई | ऐसी तो हम सब ने कल्पना भी नहीं की थी | यह वही जगह थी जिसे देख कर हमने सोचा था की यहाँ कैसे चढ़ पाएंगे लेकिन हम यहाँ पहुच चुके थे |
थोडी दूर इस शिखर पर घूमते रहे और बीच बीच में नीचे झांक कर देखते कि कहाँ से आये हैं तो मज़ा आ रहा था | अब अँधेरा होने लगा था और हमको वापस जाना था | रात में रुकने का कुछ प्रबंध अब तक नहीं हुआ था | वापस जा कर एक जगह 3०० रूपये में एक कमरा मिल गया | नहा धो कर अब समय था एक नींद लेने का | १० बजे करीब मयंक की आँख खुली तो उसने सबको उठाया खाने के लिए | और शायद नींद में ही मैंने जो खाना खाया उसका स्वाद अब तक मुझे याद है | कई सालों में सबसे अच्छा खाना था वो इतनी थकान के बाद |

ज्योतिर्लिंग के दर्शन :
सुबह करीब ६ बजे उठ कर नहा धो कर अब वक़्त था मंदिर में दर्शन का | भीड़ नहीं थी ज्यादा और जल्दी ही दर्शन हो गए | लेकिन एक बात जो मुझे मंदिरों में हमेशा बुरी लगती है वो है पैसे की माया | यहाँ भी यही हुआ | कुछ लोग पुजारी को ज्यादा दक्षिणा दे कर वहां डंटे हुए थे और बाकी लोग दर्शन के लिए तरस रहे थे | हम भी दूर से दर्शन कर के बाहर आ गए |
बाहर निकल कर कुछ फोटोग्राफी की | तभी सौरभ को मंदिर के बाहर एक सुन्दर सी कन्या के भी दर्शन हो गए जो वाकई बहुत खूबसूरत थी | बाद में पता चला की वो कुछ बच्चो की बुआ जी हैं | अब बाहर आ कर चाय पी और बुआ जी फिर वहां भी दिख पड़ी | बुआ जी की यादों को समेट कर अब वापस चलने का वक़्त हो चला था |

भीमाशंकर से वापसी :
करीब ८.३० बज रहा था | चाय और नाश्ते के बाद सौरभ ने बोला की वापस उस रास्ते से जाना खतरनाक है | सौरभ का पैर एक बार फिसल चुका था तो अब उस जगह का भय होना स्वाभाविक था | मयंक और मैं भी यही सोच रहे थे | पूछताछ की तो पता चला की एक और रास्ता है जो दूसरी तरफ से जाता है और थोडा आसान है | जानकारी के लिए बता दूँ कि यह रास्ता भीमाशंकर के बस स्टैंड के ठीक बगल से नीचे उतरता है और करीब १००-२०० मीटर तक थोडी झाडियाँ सी हैं और रास्ता नहीं दिख पता | यहाँ से कुछ दूर तक बहुत ढलान का रास्ता है | सुबह सुबह मौसम अच्छा था और अब तक आराम से ही चल रहे थे | थोडा नीचे उतरने के बाद जंगल आ गया | अब रास्ता और भी अच्छा हो गया था घने जंगलों से हो कर मस्ती में चलते रहे | लेकिन थोडी देर बाद धूप आने लगी थी | और अब जंगल भी खत्म हो रहे थे | आगे का रास्ता थोडा मुश्किल ही हो रहा था | अब यहाँ भी हमे एक बरसाती नाले के साथ साथ नीचे उतरना था जो कहीं कहीं पर बहुत कठिन भी था|

जाना था कहाँ , पहुंचे कहाँ :
धूप चढ़ने लगी थी और अब उतरना भी मुश्किल हो रहा था | अचानक एक जगह मयंक का पैर मुड़ गया | थोडी देर रुके और अब तो धीरे धीरे ही चलना था |
रास्ते में एक समतल जगह मिली | वहां पर थोडा आराम किया और सौरभ भाई ने पेडा खा लिया खूब सारा | अब जंगल ख़त्म हो रहा था और बहुत देर भी हो गई थी चलते चलते | हमें बल्युरी गाँव जाना था और ये रास्ता ख़त्म ही नहीं हो रहा था | तब तक एक आदमी दिखा पूछने पर पता चला कि बल्युरी गाँव १ घंटा और लगेगा | हमको ४ घंटे होने वाले थे चले हुए और अब थक भी चुके थे | थोडा नीचे जाने पर दो रास्ते हो गए | अब समस्या थी कि कहाँ जाना है | एक तरफ एक घर सा दिख रहा था नीचे तो उसी दिशा में चल पड़े लेकिन वहां जा कर देखा कि वो तो छोटा सा झोपडा था और वहां कोई नहीं था | अब आगे का रास्ता समझ नहीं आ रहा था कि किधर जाना है | धूप बहुत तेज़ थी | कुछ देर एक पेड़ के नीचे बैठने के बाद आगे एक दिशा में चल पड़े | यहाँ थोडी दूर पे एक कच्ची सड़क भी मिल गई| कुछ दूर एक दो गाँव वाले मिले तो उन्होंने बताया कि इसी दिशा में आगे जाओ तो गाडी मिलेगी |

वापस मुंबई :
करीब २ किलोमीटर और चलने के बाद हम एक गाँव में थे लेकिन ये बल्युरी नहीं नांदगाँव था | यहाँ पता चला कि यहाँ से भी टमटम मिलेगा कशेडे के लिए | टमटम से कशेडे आ कर दूसरा टमटम पकड़ कर कर्जत और यहाँ से ट्रेन पकड़ कर वापस मुंबई | बांद्रा में मयंक के घर पर पहुँच कर खाना खाया| इस अविस्मरणीय ट्रेक की थकान मिटाकर जल्द ही अगले ट्रेक पे जाने के विचार के साथ यात्रा का अंत हुआ | वास्तव में सह्याद्रि का ये अनुभव भी हमेशा याद रहेगा |

फोटो एल्बम यहाँ देखें ...(सौजन्य : मयंक जोशी )

रविवार, 13 सितंबर 2009

ढाक बाहिरी का असफल ट्रेक

विहंगम सह्याद्रि श्रंखला के बारे में हम लोगों को माथेरान जाने से पहले ज्यादा कुछ पता नहीं था | परन्तु माथेरान ट्रेक के बाद सह्याद्रि ने दिल-ओ-दिमाग पर ऐसी छाप छोड़ी कि तुंरत किसी और ट्रेक का प्लान बनने लगा | मयंक और मैं तो सह्याद्रि के सोंदर्य से इतने प्रभावित हो चुके हैं कि बस चले तो हर सप्ताहांत वहीँ गुजार दें | सह्याद्रि के प्रति इस आकर्षण को बढ़ने में हमारे ऑफिस के खांड्गे जी का भी बहुत योगदान है | शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहाँ वो न गए हों | और हर ट्रेक से पहले उनकी सलाह हमारे बहुत काम आती है |

योजना :
माथेरान के बाद कुछ ही हफ्तों में इन्टरनेट पर खोजा तो ढाक बाहिरी गुफाओं का पता चला और साथ ही यह भी कि यह ट्रेक थोडा मुश्किल भी है | परन्तु हम सब में जोश एकदम भरपूर था और सबने इसी ट्रेक के लिए हाँ भर दी | चूँकि यह ट्रेक थोडा लम्बा था और बाहिरी गुफा से सूर्यास्त का दृश्य देखने के लिए हमने २ दिन का ट्रेक प्लान किया और रात में जंगल में ही रूककर खाना पकाने का निश्चय किया | परन्तु कुछ ऐसा हुआ कि हमको उसी दिन वापस आना पड़ा और लक्ष्य के पास पहुँच कर भी हमारा ट्रेक पूरा नहीं हो पाया |

ढाक बाहिरी :

रायगड जिले में कर्जत के पूर्व में स्थित है ढाक पहाडी| ढाक पहाडी पर ढाक का किला भी है लेकिन यह शायद बहुत मुश्किल ट्रेक है और इसके बारे में कम ही जानकारी मिल पाती है | ढाक किले के नीचे इसी पहाडी पर बाहिरी गुफाएँ हैं | इन गुफाओं तक पहुंचना थोडा कठिन है | यहाँ बाहिरी का मंदिर होने कि वजह यहाँ गाँव के लोगों का आना जाना भी रहता है | एक दुर्गम चट्टान के बीच में यह गुफा जिसमें कि एक बार में २०० के करीब लोग रुक सकते हैं, अक्सर लोगों को आकर्षित करती है | सबसे आश्चर्यजनक बात है इस गुफा के भीतर पानी का स्रोत जो कि पूरे साल भरा रहता है | हांलांकि यह ट्रेक थोडा साहसिक भी है क्योंकि गुफा तक पहुँचने के लिए २०-२५ फीट आपको रस्सियों के सहारे चढ़ना पड़ता है जिसमें गाँव के लोगों ने एक पेड़ का तना थोड़े खांचे बना कर बाँध दिया है |

मुंबई से कर्जत :
इस बार जाने वालों में कुछ नए लोग भी थे तो कुल मिलाकर हम ५ लोग (मैं , वैदी , संतोष , मयंक और विशाल )

हो गए थे | विशाल को पुणे से आना था तो उससे सुबह २ बजे करीब अम्बरनाथ पे मिलने की बात हुई थी | बाकी हम ४ लोग रात मैं १२:३८ की आखिरी लोकल पकड़ने के लिए छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पहुँच गए| ट्रेन कल्याण के बाद खाली हो चुकी थी और हम लोग सब नींद के आगोश में समा चुके थे की अचानक विशाल के फोन से आँख खुली तो पता चला की वो अम्बरनाथ पहुँच चुका है और हमारा इन्तेज़ार कर रहा है | अगला स्टेशन अम्बरनाथ ही था और अब सारे लोग आ चुके थे | कुछ देर विशाल से बातें करते करते कर्जत भी आ गया | तकरीबन ३:३० बज रहा था और कर्जत में रेलवे पुलिस प्लेटफोर्म पे सोये हुए लोगों को भगा रही थी | हमारा इरादा तो वहीँ पे सोने का ही था लेकिन

फिर वहां चाय पीने के बाद हम लोग कर्जत बस स्टेशन की तरफ चल दिए |

कर्जत से संड़सी गाँव :
कर्जत बस स्टेशन जा कर पूछताछ करने पर पता चला की संड़सी गाँव (जहाँ से हमें ट्रेक प्रारंभ करना है ) के लिए पहली बस सुबह ५:५० की है | इतने दिन महाराष्ट्र में घुमने के बाद यहाँ की राज्य परिवहन की सेवाओ से मैं विशेष रूप

से प्रभावित हुआ हूँ | अब तक पूरा तो नहीं घुमा परन्तु जहाँ तक जाने का अवसर मिला है सुदूर गावों तक आपको सड़क और उसपे राज्य परिवहन की बसें (लाल डब्बा ) चलती मिल जाएँगी | इस बात का अंदाजा ऐसे भी हुआ की जिस बस में हम संड़सी गाँव तक गए उसमें हम लोगों के अलावा मात्र एक ही सवारी थी | कर्जत से ये बस पकड़ कर हम लोग सुबह ६:३० पर संड़सी गाँव पहुँच गए |

संड़सी गाँव :
एक छोटा सा गाँव है संड़सी | चूँकि अभी अँधेरा ही था और गाँव में लोग सोये ही हुए थे | हम लोगों को भी रस्ते का कुछ अंदाजा तो था नहीं इसलिए गाँव में ही घूमते रहे | अचानक एक जगह आवाज़ सुनाइ दी| वहां एक आदमी आग जला कर किनारे सोया हुआ था | उस तरफ बढ़ने पर देखा की वो कोई ईंट का छोटा भट्टा था और कुछ मजदूर वहां पर सोये हुए थे | मौसम थोडा ठंडा ही था तो हमने कुछ देर आग ताप के कुछ समय बिताने का फैसला लिया और पूछताछ की की आखिर जाना कैसे है और किस तरफ ?


ट्रेक का प्रारंभ :
कुछ देर में गाँव के लोग दिखने लगे थे और एक लड़के ने हमको ढाक पहाडी जिस पर बाहिरी गुफा है दिखा दी और साथ

ही रस्ते के थोड़े दिशा निर्देश भी दे दिए | तकरीबन ७ बजे हमने गाँव से ट्रेक प्रारंभ किया | अभी सूर्योदय नहीं हुआ था और थोडा अँधेरा ही था | गाँव से निकल कर कुछ दूर तक रास्ता खेतों से हो कर ही गुज़रता है तो हम चल पड़े |

जैसा कि गाँव में लोगों ने बताया था कुछ दूर जाने पर एक छोटी सी बरसाती नदी मिल गई और उसके किनारे किनारे ही चलना था | आधे घंटे चलने के बाद एक जगह थोडा पानी दिखाई दिया तो हमने कुछ देर का विराम लिया | चूँकि अब सीधे पहाड़ ही दिख रहे थे तो यहाँ से एक नए जोश के साथ आगे बढे |

भटक गए रास्ता :
अभी थोडा ही चले होंगे कि अरे | ये क्या सामने एक सीधा पहाड़ था और रस्ते का कोई निशान नहीं ! ये तो चिंता कि बात थी क्युकी मैंने पढ़ा था कि इन जंगलों में अक्सर लोग रास्ता भटक जाते हैं और हमारे एक तरफ बहुत घना जंगल था | गाँव से २ कुत्ते भी हमारे साथ चल रहे थे अचानक वो भी वापस हमारे पास ही आ गए | और इस बात ने चिंता और बढा दी कि गाँव के कुत्ते भी रास्ता नहीं खोज पा रहे | और उसके बाद जंगल से कुछ आवाजें भी सुनाई देने लगी | अब तो सब थोडा परेशान से ही थे परन्तु कोशिश कर रहे थे कि कोई डरा हुआ ना दिखे | :) लेकिन थोडी देर इधर उधर भटकने के बाद संतोष कि आवाज़ आई कि शायद रास्ता मिल गया | सब लोग उस तरफ भागे और हाँ ! शायद वही रास्ता था | वो कुत्ते भी अब थोड़े खुश नज़र आ रहे थे | :)


इसके बाद इसी रास्ते पर कुछ निशान भी दिखने लगे तो इन निशानों को देखते हुए आगे बढे | आगे का रास्ता बहुत चढाई का है और इस तरफ जंगल भी नहीं था | थोडा उपर चढ़ने के बाद एक जगह फिर से थोडा विराम लिया और कुछ फोटोग्राफी की| यह ठीक सूर्योदय के बाद का समय था और सुबह की धूप का पहाडो और जंगलो पर बहुत की खूबसूरत दृश्य दिखने लगा था | कुछ देर रुकने के बाद फिर चढ़ने लगे क्युकी हमको अंदाजा नहीं था कि कितना समय लगेगा | फिर कुछ १ घंटे और चलने के बाद एक छोटा सा मैदान सा दिखा तो वहां बैठ कर ब्रेड जैम का नाश्ता किया | तभी वहां कुछ लोग दिखाई दिए जो कि चिडिओं का शिकार करने निकले थे| उनसे जान कर तसल्ली हुई कि अब बहुत जायदा नहीं चलना |

फिर थकान मिटा कर थोडा ही चले होंगे कि अचानक लगा कि फिर से हम रास्ता भटक चुके थे | ये एक और मैदान था और यहाँ पर २-३ रस्ते दिख रहे थे | हम सब लोग अलग अलग दिशाओं में रास्ता खोजने निकल पड़े | तभी मुझे एक जगह पुणे से लोनावाला का रेलवे टिकेट पड़ा दिखा | इसका मतलब था कि यहाँ कोई आया हुआ है और रास्ता हो सकता है | लेकिन ये रास्ता तो दूसरी दिशा में जा रहा था| मैं और मयंक इस तरफ रास्ता देखने निकल पड़े | तभी उपर जंगल कि तरफ से वैदी की आवाज़ आई | उसे भी एक रास्ता दिख गया था | ये रास्ता उपर कि तरफ जा रहा था
इसलिए हम सब वापस आ कर उसी दिशा में चढ़ने लगे | कुछ दूर जा कर हमें सही रास्ता मिल गया तो सबसे सुकून कि सांस ली |
चलते चलते बहुत देर हो चुकी थी लेकिन वो पहाडी जिसपे हमे जाना था गाँव के बाद से अब तक नहीं दिखी थी | कई बार ये आशंका भी थी कि कहीं हम बिलकुल ही गलत रस्ते पर तो नहीं निकल गए | लेकिन इसी रस्ते को पकड़ उपर चढ़ते रहने का ही सोचा |

ढाक पहाडी की तलहटी में :
इसके बाद एक बहुत ही कठिन चढाई का रास्ता था| सूरज ठीक सर के उपर तिलमिला रहा था जो और मुश्किल बना रहा था इस चढाई को | और सबसे बड़ी बात की जो पानी भी सोच समझ के ही पीना था क्युकी गाँव के बाद पूरे रस्ते पानी मिलने वाला नहीं था | अगर एक बार आप बाहिरी गुफा में पहुँच गए तो वहां गुफा के अन्दर पानी साल भर मिलता है | इसी रास्ते पर चलते हुए करीब आधे घंटे बाद एक छोटा सा मैदान सा आया और यहाँ पेड़ भी थे | फिर थोडी राहत मिली और कुछ दूर चलने पर आखिरकार हमको ढाक पहाडी भी दिख पड़ी | हम ढाक की तलहटी में खड़े थे और इसके बाद सीधी चट्टान थी | अब सबके मन में यही सवाल की क्या हमें इस पे चढ़ना है ? क्युकी ये नामुमकिन सा लग रहा था | तभी पहाडी के बीच में कुछ हलचल भी दिखाई देने लगी| कुछ लोग गुफा में चढ़ रहे थे | अब समझ में आया की गुफा चट्टानों के बीच में है और हमें शिखर तक नहीं जाना |

लेकिन ये रास्ता तो दूसरी दिशा में जा रहा था | कुछ सोच कर हम निशान देखते हुए चल पड़े| दरअसल सामने से गुफा तक चढ़ना नामुमकिन ही था तो रास्ता घूम के पहाडी के पीछे से उपर जाता था | आगे का रास्ता कुछ देर तक अच्छा था क्युकी ये घने जंगलों से जा रहा था | करीब एक घंटे इस रस्ते पे चढ़ने के बाद फिर से एक खड़ी चढाई (अंदाज़न

६५-७० अंश की) हमारे सामने थी | अब तक सब लोगों की हालत ख़राब ही हो चुकी थी परन्तु गुफा के पास पहुँचने की ख़ुशी एक नया जोश पैदा कर रही थी | तो धीरे धीरे इस चढाई को भी पार कर लिया और उपर पहुँचते ही जैसे कुछ जाना पहचाना सा लगा | दरअसल हम लोगों ने पढ़ा था कि गुफा से ठीक पहले एक नाली सा रास्ता आता है जो बहुत ही संकरा है और एक कठिन उतार है | हाँ ! हम पहुँच चुके थे लक्ष्य के करीब |


दुर्गम नाली का रोमांच :
ये नाली पहाड़ के दो शिखरों के बीच एक संकरा दर्रा सा है| जिसमें आपको बस अगला कदम ही दिखता है नीचे और उसके आगे कुछ नहीं | सामने देखने पर बस चट्टान | यहाँ पर ५-१० मिनट का विराम ले कर आगे बढे | मेरी दुबली पतली काया की बदौलत में थोडी सहजता से इन रास्तों पर चढ़ उतर लेता हूँ | यही कारण था की यहाँ भी सबसे पहले मैं ही उतरा |
सबको ये चिंता थी कि यहाँ उतर भी गए एक बार तो वापस कैसे उपर चढेंगे ? लेकिन मैं आगे एक एक कदम देख कर उतरता रहा और सब धीरे धीरे उतरने लगे | नाली के दूसरे छोर पर तो कहानी कुछ और ही थी | यहाँ पर पहुँच के देखा की सामने का खुला दृश्य और नीचे कुछ ४-५ फीट सीधी चट्टान और उसके बाद कुछ एक फीट की जगह जहाँ १-२ लोग खड़े हो सकें और कुछ भी नहीं | :( चूँकि हम सब के पास सामान भी था पीठ पर तो इतनी बड़ी कूद मारना जबकि नीचे कुछ भी न दिखाई दे कठिन था | मैं सबसे पहले नीचे उतरा और मुआईना किया तो पता चला कि वो अचानक से रास्ता दायीं और मुड़ जाता है| और आपको उपर से कूद के अपने को बैलेंस करना है नहीं तो आप सीधे नीचे खाई में ! अब यह फैसला लिया कि मैं पहले उतर के सबके बैग नीचे उतार लूँगा और फिर सब उतरेंगे | लेकिन यही इस ट्रेक का सबसे दुखद पल था |

रोमांचक या साहसिक पर दुखद अनुभव :
मैंने एक दो बैग उतार के नीचे रख लिए थे और अचानक एक बैग लुड़क के खाई में गिर गया | इस बैग में ही रात का पूरा खाने का सामान और मयंक का मोबाइल फोन और बटुआ जिसमें कि वो सारे कार्ड ले आया था सब चला गया | अब तो कुछ समझ नहीं आ रहा था | सब लोग एक एक कर नीचे उतरे और एक किनारे पे सारा सामान रख कर ये सोचने लगे कि अब क्या? एक तरफ वो बैग था और दूसरी तरफ बाहिरी गुफा | सबसे कठिन रास्ता तो अब शुरू होता है | बाहिरी के लिए आपको २०० मीटर संकरे से रस्ते पर चल कर फिर सीखे २५-३० फीट उपर चढ़ना है | इस जगह गाँव वालों ने एक दो रस्सियाँ और एक पेड़ का ताना जिसमें खांचे बने हैं पैर रखने के लिए लगाया हुआ है| लेकिन पहले बैग और हमारा रात का प्लान ? कुछ देर सोचने के बाद मैंने नीचे उतरने कि सोची कि अगर बैग दिख जाये तो फिर कुछ किया जाये | धीरे धीरे मैं एक जगह से नीचे उतरा परन्तु ये क्या सूखी हुई घास पकड़ कर जाना मुश्किल था और पकड़ने के लिए चट्टान मैं कुछ भी नहीं | थोडा नीचे उतर के मेरी हिम्मत भी जवाब दे गई | अब नीचे देखना बहुत खतरनाक था | कुछ सोच कर मैं वापस उपर आ गया | अब तक उस जगह के सारे बन्दर उस बैग कि तरफ जा चुके थे | बैग तो नहीं पर वो बंदरो के झुंड से पता चला कि बैग नीचे एक जगह हो सकता है |
थोडी देर मैं कुछ ट्रेकर जो पुणे से आये हुए थे वो वहां दिखे | हमने अपना हाल बताया उनको तो उन्होंने एक कोशिश कि नीचे उतरने की| लेकिन वो भी थोडा नीचे जा के वापस आ गए | उन्होंने हमसे पूछा की हमारा यहाँ आने का कितना अनुभव है? हमारा तो सह्याद्रि का ये पहला ही ऐसा दुर्गम ट्रेक था | इसके बाद उन्होंने जो बताया वो सबके होश उड़ा देने वाला था | यह सबसे कठिन ट्रेक में से था और इस जगह से कम से कम १०० लोग अपनी जान गँवा चुके थे | :( अब तो यही लगा कि अच्छा हुआ बैग गिरा हम में से कोई नहीं | अब इसके बाद आगे जाने की हिम्मत तो खो चुकी थी | उन्होंने बताया की गुफा में एक गाँव वाला कुछ लोगों को ले कर आया हुआ है | वो सारे रास्ते जनता होगा और शायद वो बैग वापस ला दे | लेकिन अब गुफा तक जाना | अब वैदी और मैं थोडा आगे बढे और गुफा की तलहटी तक ही पहुँच पाए और इन्तेज़ार करने लगे की कोई दिखे |




These two photographs taken from http://deepabhi.tripod.com/
गुफा हमारे ठीक उपर थी और उपर का रास्ता दिख नहीं रहा था | कुछ देर बाद २ लड़के मिले जो गुफा में जा रहे थे तो उनको बोला कि वो गाँव वाले गाइड तक हमारा सन्देश पहुंचा दें | अब हमारे पास वहां बैठकर उसका इन्तेज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं था | करीब १ घंटे बाद वो लोग नीचे उतरे और हमने उसको बताया |

वो गाइड हमारा बैग ले कर आने को तैयार हो गया लेकिन बदले में हमें उन लोगों को नीचे ले कर जाना था | चूँकि हमारा सारा खाने का सामान तो बन्दर ले ही जा चुके होंगे ये सोचकर हमने हामी भर दी और वहीँ से वापस उतरने का फैसला लिया | वो गाइड हमको बीच में कहीं मिलने को बोल कर दूसरे रास्ते से उतर गया |
अब क्या था | सब मुह लटकाए वापस उतर रहे थे और साथ में वो लोग भी | फिर उसी नाली पर जैसे तैसे उपर चढ़े | चिंता की बात यह भी थी की अब पानी ख़तम होने वाला था क्युकी हमारा इरादा गुफा में पानी भरने का था | लेकिन अब जाना तो था ही | कुछ देर उतरने के बाद वो गाइड बैग के साथ दिखा और हमारी दुखी चेहरों पर थोडी मुस्कान आ पाई | खाने का सामान और मयंक का मोबाइल तो जा चुका था |
यहाँ पर एक बार फिर सोचा की क्यों न यहीं रुक कर थोडा बहुत बिस्कुट जो दूसरे बैग में थे खा कर रात काट लें और सुबह सुबह फिर गुफा की चढाई की जाये | लेकिन कुछ लोगों की हिम्मत टूट चुकी थी, पानी भी नहीं था और विशाल को पुणे जाना था यह सोच कर वापस ही उतरने लगे |

फिर से एक बार :
इस ट्रेक में कुछ कमी रह गई शायद जिसको पूरा करने के लिए अब वो गाँव वाला भी रास्ता भूल गया | एक बार फिर हम घने जंगलों में और झाडियों में भटकने लगे | करीब एक घंटा सब भटक रहे थे और तब तक वो गाइड भी रास्ता खोजता हुआ हमसे अलग हो गया | कुछ देर में आखिर वो मिला और हमको रास्ता भी मिल गया | लेकिन अब पानी सबके पास खत्म हो चुका था और कम से कम ३ घंटे और उतरना था संड़सी गाँव तक पहुँचने के लिए |
लेकिन उस गाइड को एक पानी का स्रोत पता था और कुछ देर बाद आधे लोग एक जगह रुके और हम कुछ लोग पानी भरने उसके साथ चल पड़े | ये स्रोत भी ऐसी जगह था की बस एक पैर रखने की जगह और नीचे खाई | यहाँ पर उसने खुद ही उतर कर सबके लिए पानी भरा और हम वापस चल पड़े |
थोडा नीचे उतर कर सूर्यास्त भी दिख गया जो कि कैमरे में कैद कर लिया | हमारा प्लान तो बाहिरी गुफा से सूर्यास्त
देखने का था लेकिन अब सब खुश थे कि सही सलामत गाँव तक पहुँचने वाले हैं |

संड़सी से मुंबई वापस :
करीब ७ बजे हम गाँव में थे | अँधेरा हो चुका था और ७.३० बजे एक बस थी कर्जत के लिए | सबने सुकून कि साँस ली | गाँव में चाय पीने के बाद बहुत जल्द फिर से ये ट्रेक पूरा करने का विचार बनाते हुए हम वापस चल पड़े |
८ बजे करीब कर्जत और वहां से ट्रेन पकड़ कर सब वापस मुंबई |
लेकिन अब तक वो ट्रेक पूरा नहीं हो पाया | :( उम्मीद है बहुत जल्द एक नए जोश के साथ हम बाहिरी गुफाओं तक पहुँचने में कामयाब होंगे |


फोटो एल्बम यहाँ देखें
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