मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

राजमाची ट्रेक और कोण्डाना की गुफाएं : कला और प्रकृति का सम्म्रिश्रण

लोहगढ़ ट्रेक की खूबसूरत यादों के साथ वापस लौटने पर अब मुंबई की भीड़ भाड़ में किसी का भी मन नहीं लग रहा था | वापसी के तुंरत बाद से ही सह्याद्रि में फिर खूबसूरत वादियों की तलाश शुरू हो गई | अगर एक बार सह्याद्रि की सुन्दरता आपके मन में घर कर गई, तो ही आप हमारी मनोस्थिति समझ सकते हैं | इस अनुभव को वो ही समझ सकता है जो इन वादियों से रूबरू हो चुका हो |
हर बार की तरह कई जगहें मिलती गयी और इसके अनुसार ही हमारे प्लान बनते गए | बहुत खोजबीन के बाद तय हुआ की कलावन्तिन और प्रबलगढ़ दुर्ग का दो दिन का ट्रेक कर लिया जाये | परन्तु बारिश बहुत हो रही थी और कहीं से जानकारी मिली की कलवन्तिन तो ठीक था परन्तु प्रबलगढ़ के जंगलों में रास्ता भटकने की सम्भावना बहुत अधिक है | धीरे धीरे सप्ताहांत तक राजमाची किले के ट्रेक का प्लान बन चुका था | इस ट्रेक की ख़ास बात यह भी थी की रास्ते में कोण्डाना की गुफाओं को भी देखा जा सकता है | संतोष किसी काम की वजह से लोहगढ़ ट्रेक पर नहीं आ पाया था तो इस बार वो बहुत उत्साहित था | जाने वालों में हम चार लोग थे : मैं , सौरभ , मयंक और संतोष |

राजमाची का किला और कोण्डाना गुफाएं :

राजमाची मुंबई के पास सह्याद्रि में एक छोटा सा गाँव है | यहाँ पर छत्रपति शिवाजी द्वारा सत्रहवीं शताब्दी में बनाये गए दो सुन्दर किले हैं | यह मुंबई और पुणे के बीचे के घाट (भोरघाट ) से जाने वाले व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण रखने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे | राजमाची दो रास्तों से पहुंचा जा सकता है , कर्जत से और लोनावाला से |
लोनावाला से रास्ता लम्बा है (करीब २० किलोमीटर ) और कर्जत से थोडा छोटा (करीब १३ किलोमीटर ) परन्तु कठिन ट्रेक है | कोंडाना गुफाएं कर्जत वाले रास्ते से जाने पर बीच में पड़ती हैं |
कोंडाना गुफाएं बौद्ध हीनयान शैली में बनी हुई बहुत सुन्दर गुफाएं हैं | एक विशाल चट्टान की तलहटी में स्थित इन गुफाओं के सामने बहता झरना इनकी सुन्दरता को और बढा देता है|

मुंबई से कर्जत :
शुक्रवार होने की वजह से नयी फिल्म देखने का भी मूड था | शाम को अमोल के कहने पर मैं, मयंक और अमोल "लव आज कल " देखने चल पड़े | फिल्म कुछ ख़ास तो नहीं लगी परन्तु हरलीन कौर ( गिसेल्ले मोंटेरियो ) की सुन्दरता ने हम सबको फिल्म के साथ बांधे रखा | यहाँ से निकल कर वापस ऑफिस पहुँच कर बैग लिए और पास के ढाबे में भर पेट खाना खा लिया | अब तक संतोष बान्द्रा में मयंक के घर पहुँच चुका था | आधे घंटे बाद हम लोग भी बान्द्रा पहुँच गए | वहां जा कर पता चला की सौरभ अपने दोस्त के घर पे खाने के लिए गया हुआ है | फोन कर के बुलाने पर आखिर करीब ११:३० पर सौरभ भी आ गया | हर बार की तरह फिर सब नींद के आगोश में समाने लगे थे परन्तु जाना तो था ही | थोडी कोशिशों के बाद सब निकल पड़े |

चूँकि हम अब तक नवनिर्मित बान्द्रा वरली समुद्री सेतु पर नहीं गए थे तो टैक्सी पकड़ कर इस रास्ते से छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के लिए चल पड़े | टैक्सी को इस पर से जाने के लिए ५० रूपये टोल देना पड़ता है परन्तु समुद्री सेतु के उपर १५ मिनट की यह यात्रा भी अच्छा अनुभव थी | हमारा मन था की टैक्सी रोक कर थोडी देर यहाँ से नज़रों का आनंद लिया जाये परन्तु सेतु पर गाड़ी रोकना सख्त मना है |
करीब १२:२५ पर हम लोग छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पहुँच गए | संतोष टिकेट लेने चला गया और हम लोग चाय पी कर ट्रेन में चढ़ गए | यहाँ से कर्जत के लिए १२:३८ पर आखिरी लोकल निकलती है और किराया मात्र १८ रुपये | करीब ३:२० पर हम लोग कर्जत स्टेशन पहुँच गए | यहाँ पर इस समय बहुत से लोग थे | ये सब भी ट्रेक के लिए ही आये हुए थे | हमने सोचा कि हो सकता है बस स्टेशन पर भीड़ कम हो और कुछ कुछ नींद पूरी कर सकें | बस स्टेशन जा कर देखा कि वहां भी जगह नहीं थी | आखिर में हम लोग स्टेशन के वरामदे में ही सो गए | थोडी देर के बाद अधिकतर लोग जा चुके थे और बस स्टेशन के प्रभारी से पूछने पर पता चला कि कोण्डाने गाँव के लिए कोई बस नहीं है |
दूसरा विकल्प ये था कि हम एक बस पकड़ कर खान्डपे गाँव तक चले जाये और वहां से पैदल ही कोण्डाने गाँव पहुंचें | खान्डपे से कोण्डाने २-३ किलोमीटर दूर है | ये दूरी ज्यादा नहीं थी इसलिए हम इसी बस से निकलने के लिए तैयार हो गए |

कर्जत से खान्डपे :
खान्डपे के लिए बस का समय सुबह ५:४५ का था इसलिए हमने सोचा कि थोडी देर सो लिया जाये | लेकिन बरसात के मौसम कि वजह से मच्छरों ने सोने तक नहीं दिया | कर्जत स्टेशन के सामने ही एक घर है | यहाँ पर एक अंकल जी सुबह सुबह ट्रेकिंग के लिए जाने वालों के लिए कांदा पोहा और चाय उपलब्ध करा देते हैं | दो दो प्लेट कांदा पोहा और चाय पीने के बाद हम बस से खान्डपे की तरफ चल दिए | यह बस संड़सी जाने वाली थी जिससे हम ढाक बहिरी ट्रेक के लिए गए थे | ठंडे मौसम में बस कि यह यात्रा बहुत सुकून भरी थी | पतली सी सड़क और चारों तरफ हरियाली सबको ट्रेक के लिए तरोताजा कर गयी |

खान्डपे से ट्रेक का प्रारंभ :

करीब ६:२० पर हम खान्डपे गाँव पहुँच गए | मात्र ८ रूपये का टिकेट था | यह एक छोटा सा गाँव था और चारों तरफ पहाडियों और बादलों का दृश्य बहुत ही खूबसूरत | यहाँ से हमे कोण्डाने गाँव तक सड़क से ही जाना था | थोडी देर चलने
के बाद कोंडिवडी गाँव आया और इसके आगे कोण्डाने गाँव था | एक छोटी सी नदी के किनारे किनारे यह रास्ता आसान ही था | एक जगह रुक कर नदी में हाथ मुंह धोने के बाद हम चलते रहे | कोण्डाने पहुँच कर याद आया कि हमने खाने के लिए तो कुछ लिया ही नहीं है और इसके आगे कुछ मिले भी या नहीं | इस गाँव में कोई दुकान नहीं थी परन्तु एक घर पर हमको स्वादिष्ट कांदा पोहा मिल गया | यहाँ भरपेट कांदा पोहा खा लिया और रास्ते के बारे में थोडी जानकारी ले ली | ८ बज चुका था और अब हमको निकलना था क्योंकि राजमाची की दूरी का कोई भी अंदाजा नहीं था |
(कोण्डाने और कोंडिवडी गाँव के नाम के उच्चारण में थोडा संशय है क्योंकि मुझसे मराठी का उच्चारण कभी कभी गलत हो जाता है )
कोण्डाने गाँव से थोडा आगे बढ़ने पर एक जगह रास्ता दो में बंट जाता है | हमसे आगे कुछ लोग नीचे वाला रास्ता पकड़ कर निकल गए | हम लोग सोच रहे थे कि किस रास्ते को पकडे तभी संतोष को एक चाय की दुकान दिख पड़ी | वहां जा कर पूछा तो पता चला की अगर कोण्डाना गुफाओं तक जाना है तो उपर की तरफ जाना पड़ेगा | हमे कोण्डाना गुफाओं से होते हुए राजमाची जाना था इसलिए हम उपर की तरफ चल पड़े | उन्होंने बताया की इसके आगे राजमाची तक चाय वगेरह कुछ नहीं मिलेगा | हम इसके लिए तैयार थे इसलिए सीधे आगे बढ़ चले |

राजमाची का रास्ता आसान नहीं था और सीधी खड़ी चढाई थी | आगे घने जंगलों में रास्ता भटकने का भी खतरा था | बरसात के इस मौसम में ये चढाई और भी मुश्किल थी | यहाँ से आगे बढ़ने पर थोडा उपर चढ़ कर एक जगह थोडा आराम किया और आगे बढ़ चले | इस सीधी चढाई के बाद कुछ देर रास्ता आसान ही था | आधा घंटा और चले होंगे कि एक छोटा सा और खूबसूरत झरना सामने था | हमसे पहले एक ट्रेकिंग ग्रुप जा चुका था | वो लोग रास्ते पर खड़े होकर
ही झरने का आनंद ले रहे थे | लेकिन झरना देखते ही पता नहीं मुझे क्या हुआ और मैं दौड़ता हुआ झरने कि तरफ चल दिया | पीछे पीछे सब लोग आ गए और अब समय था झरने में नहाने का | पानी बहुत ठंडा था और तेजी से नीचे आ रहा था | यहाँ पर जम के नहाने के बाद फोटोग्राफी की और रास्ते पर वापस आ कर आगे चल पड़े |


कोण्डाना गुफाएं :

करीब आधा घंटा और चढ़े होंगे की सामने से कुछ लोगों की आवाजें सुनाई दी | हम समझ गए थे की हमसे पहले जाने वाले ट्रेकिंग ग्रुप के ही लोग होंगे | थोडा और उपर जाने के बाद सौरभ को एक बड़ा सा झरना दिख गया | एक बहुत
बड़ी काली चट्टान के उपर से पानी गिर रहा था | २-४ कदम आगे बढे होंगे की कोंडाना की गुफाएं हमारे सामने थी | कोंडाना गुफाओं का एक आकर्षण इसके सामने बड़ा सा झरना भी है | घने जंगल में इन गुफाओं की भव्यता और शिल्प देख कर एक बार फिर हम सब अचंभित थे | मयंक ने बताया कि इन गुफाओं का पता कुछ दशक पहले ही चला है |
वास्तव में एक विशालकाय काले रंग की चट्टान को काट कर बनायीं गयी इतनी बड़ी गुफाएं किसी को भी आश्चर्यचकित कर देंगी | गुफा के द्वार पर इतना बड़ा झरना इस सौंदर्य को कई गुना कर दे रहा था | इन गुफाओं में से एक में बौद्ध स्तूप भी है | ये बौद्ध स्थापत्य का सुन्दर नमूना हैं | बाद में पता चला की ये हीनयान बौद्ध सम्प्रदाय की शैली में बनी हुई हैं | इन्टरनेट पर ही कहीं जानकारी मिली कि पुरातत्वविदों द्वारा इन गुफाओं का निर्माण काल २०० ई० पू० से १०० ई० पू० के बीच में आँका गया है | सन १९०० के आसपास आये भूकंप से कुछ स्तूप नष्ट हो चुके हैं | गुफा के अन्दर लोगों ने बहुत गन्दगी की हुई है | पता नहीं लोग कब समझेंगे कि यदि वो इन सुन्दर जगहों पर घूमने जाते हैं तो इनके रखरखाव का दायित्व भी उनका ही बनता है |

कोंडाना से राजमाची :
कोंडाना गुफाओं की सुन्दरता और भव्यता से अभिभूत होने के बाद अब हमें आगे चलना था क्योंकि राजमाची बहुत दूर था और शाम को वापस भी आना था | इसके आगे का रास्ता बहुत दुर्गम चढाई वाला था | थोडी देर बाद हम ऐसी जगह पहुँच चुके थे जहाँ से रास्ता दिखना बंद हो गया | आगे झाडियाँ ही झाडियाँ थी बारिश भी होने लगी | खैर इसकी हमें उम्मीद थी ही क्योंकि खानदगे जी ने हमें आगाह कर दिया था | अब हम चारों अलग अलग दिशाओं में रास्ता खोजने निकल पड़े | साथ ही ये भी ध्यान रखना था की कहीं कोई भटक न जाये इसलिए सब एक दूसरे को पुकारते जा रहे थे | अचानक हमारे पीछे ४-५ लोग और आ गए | वो भी रास्ता भटक चुके थे | सुकून की बात ये थी की अब हम ४ लोग नहीं ९ लोग हो चुके थे | अब सारे लोग रास्ता खोजने लगे | थोडी देर में सौरभ को एक रास्ता दिख गया | ये रास्ता नीचे की तरफ था और इसके लिए हमको तिरछे चलते जाना था | संतोष नीचे से ही उस तरफ पहुँच रहा था | में और मयंक एक ही तरफ थे तो साथ में उस तरफ चल दिए | एक चट्टान में बहुत काई जमी हुई थी और पानी बहने की वजह से बहुत फिसलन थी | इसे पार करने से पहले नीचे देखा तो सीधी खाई थी | हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और आगे बढे | अचानक मयंक का पैर फिसला और वो थोडा सा सरक गया | गिरते ही उसने मुझे पकडा और में भी डगमगा गया | अब तो हम दोनों की हालत देखने लायक थी | भगवान् का शुक्र था की हम वहीँ थे और फिर से उठ कर इसे भी पार कर लिया | दूसरे ग्रुप वालों का अंदाजा था कि यह सही रास्ता नहीं था और वो दूसरा रास्ता खोजने लगे |
अब रास्ता मिल चुका था और हम उपर चढ़ने लगे | थोडी देर में वो ५ लोग भी दूसरी तरफ से उपर आ गए | थोडी दूर जा कर हमें वो लोग भी मिल गए जो कोंडाना गुफाओं में मिले थे | यहाँ एक मैदान सा था और ये सब आराम कर रहे थे | इनके पास जा कर पता चला कि ये लोग थक चुके हैं और अब यहीं से वापस चले जायेंगे |
अब तक हम लोग भी बहुत थक चुके थे परन्तु अब हमने सोचा कि अगर देर हो गई तो राजमाची में ही रात काट ली जायेगी और सुबह वापस चल पड़ेंगे | थोडा आगे बढ़ने पर एक लड़का मिला जो भुट्टा बेच रहा था | यहाँ बैठ कर भुट्टे खाए और उससे रास्ते का पता किया | उसने बताया कि अभी १:३० घंटा लगेगा | हम समझ गए कि हम लोगों को कम से कम २ घंटा तो लगेगा ही | लड़का राजमाची गाँव का रहने वाला था और उसने बताया कि हम उसके घर पे जा के खाना खा सकते हैं | अब नए जोश के साथ आगे का ट्रेक शुरू किया | यहाँ से रास्ता जंगलों वाला था और खड़ी चढाई थी | बीच में एक चट्टान पर चढ़ना था और यहाँ पर हरी घास अपनी निराली छटा बिखेर रही थी | सामने कि पहाडी पर कुछ झरने भी दिख रहे थे | दृश्य अच्छे थे और कुछ फोटोग्राफी करने के बाद आगे बढ़ गए | अब सब बुरी तरह थक चुके थे और संतोष कि हालत बहुत ख़राब थी | खैर थोडा आगे हम पहाडी के एक शिखर पर पहुँच गए | यहाँ एक चाय की दुकान थी जहाँ रुक कर चाय और पारले-जी खाया | यहाँ पता चला की अब सीधा रास्ता राजमाची गाँव तक जाता है जो की १० मिनट में पहुँच जायेंगे और उसके बाद फिर किले के लिए आधे घंटे की चढाई है|

राजमाची गाँव :
गाँव में पहुँच कर एक घर में पानी पिया और दोपहर के खाने का आर्डर दे दिया ( इन ट्रेकिंग के रास्तों पर गाँव के लोग ३०-४० रूपये में लोगों को भोजन उपलब्ध करा देते हैं जो मुझे बहुत अच्छा लगा ) |
गाँव से आगे बढ़ते ही राजमाची के किले दिखने लगे थे | राजमाची में दो शिखरों पर दो किले हैं - श्रीवर्धन और मनरंजन किले | गाँव के बाहर एक स्कूल है जो कुछ NGO समूहों द्वारा संचालित होता है | इतनी दुर्गम जगह पर बसे इस गाँव में ये चीजे दिखाती हैं की लोग कितने जागरूक हैं | थोडा आगे जाने पर चट्टान की तलहटी में कुछ गुफाएं थी जो पानी इकठ्ठा करने के लिए प्रयोग होती थी | इसके आगे दोनों किलों का रास्ता बंट जाता है | यहाँ पर भैरोबा का मंदिर भी है | श्रीवर्धन किला छोटा है और ज्यादा अवशेष नहीं बचे हैं | हमारे पास समय भी कम था इसलिए हमने मनरंजन देखने का निर्णय लिया |




मनरंजन किले में :

नीचे से देखने पर ही समझ में आ गया था की उपर तक पहुंचना आसान नहीं है | कुछ दूर तक सीढियां सी बनी हुई हैं तो धीरे धीरे चलते रहे | उपर जा कर किले के मुख्य द्वार के ठीक पहले एक चट्टान को पार करना था | यहाँ पानी बह रहा था और बहुत फिसलन थी | सब लोग उपर चढ़ गए थे परन्तु मैं और मयंक फोटोग्राफी करने लगे थे | जैसे ही मैंने एक कदम बढाया मेरा पैर फिसल गया | अब तो मेरे कदम डगमगाने लगे थे पर बड़ी मुश्किल से ये भी पार कर किया | किले के द्वार के थोड़े अवशेष बचे हैं |


लेकिन द्वार को देख कर किले की भव्यता का अंदाजा हो जाता है |इसके अन्दर जाते ही उपर की तरफ से सामने के सुन्दर दृश्य और मनोरंजन किले के अवशेष दिखते हैं | इसके आगे बढ़ने पर चारों तरफ हरी घास थी | यहाँ पर एक और गुफा पानी इकठ्ठा करने के लिए बनी हुई है | किले की पानी की सारी जरूरतों को पूरा करने के लिए इतनी ऊंचाई पर इन टंकियों में पानी इकठ्ठा किया जाता रहा होगा | पास में ही चट्टानों को काट कर कुछ तालाब भी बनाये गए हैं | इनकी गहराई बहुत अधिक थी | इन जल संग्राहकों के आगे बढ़ने पर सामने लोनावाला दिखने लगता है | सामने एक सुन्दर झील भी दिख रही थी | यहाँ से एक रास्ता नीचे की तरफ जा रहा था और दूसरा उपर बुर्ज की तरफ | बुर्ज पहाडी का सबसे ऊँचा स्थान था | आज भी लोग १५ अगस्त (स्वतंत्रतता दिवस ) को यहाँ आ कर झंडा फहराते हैं | बुर्ज पर पहुँचते ही एक अनोखा संतोष और ख़ुशी मिल रही थी | हाँ हम अपनी मंजिल तक पहुच चुके थे | यहाँ कुछ देर बैठे रहे और चारों तरफ के सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया और फोटोग्राफी की | संतोष इतना थक चुका था की उसको बैठते ही नींद भी आ गयी | यहाँ से एक तरफ लोनावाला का सुन्दर दृश्य दिख रहा था और उसके नीचे एक बहुत बड़ा झरना था | सामने की पहाडी पर यह झरना बहुत दुर्गम लग रहा था | बुर्ज से जल्दी नीचे उतरना था क्योंकि गाँव में खाना खाने के बाद तुंरत वापस लौटना था | नीचे उतरते हुए एक और जगह थी जहाँ से उस झरने का सुन्दर दृश्य दिख रहा था | इस रास्ते पर घास बहुत बड़ी हो चुकी थी और तेज़ हवाओं की वजह से जब इसमें लहरे बन रही थी तो लग रहा था मखमल की कोई चादर उड़ रही है | हमने इसका विडियो भी बनाया और उस जगह चल दिए |

इस जगह बैठ कर इतना सुकून मिला कि एक बार को तो हमने रात गाँव में बिताने का निर्णय ले लिया | परन्तु मयंक के कहने पर १० मिनट में वापस उतरने की बात हुई | यह झरना बहुत बड़ा था और हवा के साथ सफ़ेद पानी उड़ उड़ के गिर रहा था |वास्तव में इस ट्रेक में भी झरने ने मन मोह लिया था |


राजमाची से वापस मुंबई :
अब समय था वापस जाने का | करीब आधे घंटे में हम गाँव पहुँच गए | खाना तैयार था और वाकई बहुत ही स्वादिष्ट था | चावल के आटे की रोटी (मराठी नाम : भाकरी ) और सब्जी खा कर तो मन खुश हो गया | खाने के बाद १०
मिनट आराम किया और वापस चल पड़े | यहाँ पर दो लड़के मिल गए जिनको कोंडाना गुफाओं तक जाना था | दरअसल ये लोग लोनावाला से आये थे | इनको रास्ता बताया और हम तेजी से वापस चलने लगे | ३:३० हो गया था और हमे अँधेरा होने से पहले गाँव पहुंचना था | कुछ जगहों को छोड़ कर वापसी आसान थी | करीबन ६ बजे हम गाँव में पहुँच चुके थे |
यहाँ से एक टमटम (६ सीट वाला टेम्पो ) मिल गया जिसने १५० रूपये में हमे कर्जत स्टेशन तक छोड़ दिया| यहाँ से ट्रेन पकड़ कर हम वापस मुंबई आ गए | सह्याद्रि में और और खूबसूरत ट्रेक सकुशल हो गया परन्तु हर एक ट्रेक के बाद सह्याद्रि से हमारा लगाव बढ़ता ही जा रहा है | बहुत जल्द अगले ट्रेक का प्लान बनने लगा |


फोटो एल्बम यहाँ देखें ...(सौजन्य : मयंक जोशी )

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

लौहगढ़ ट्रेक : सह्याद्रि का अप्रतिम सौन्दर्य

विशेष : यदि आप यहाँ तक पहुँच चुके हैं और इस वृत्तान्त को समयाभाव या किसी अन्य कारणवश नहीं पढ़ पा रहे तो पोस्ट के बीच में लगे विडियो को अवश्य देख लें |


जब तक किसी यात्रा में कुछ विषम और रोमांचकारी अनुभव न हो तो फिर वो अविस्मरणीय नहीं रह पाती | मेरे अब तक के सबसे आसान ट्रेक का अनुभव भी कुछ ऐसा ही था कि अक्सर हम उस दिन को याद कर फिर उस रोमांच का अनुभव कर लेते हैं |

लौहगढ़ :

लौहगढ़ लोनावाला के पास एक किला है | कल्याण और नालासोपारा की खाड़ी और दक्षिण के बाजारों के बीच के बहुत पुराने और महत्वपूर्ण व्यापार के मार्ग पर नियंत्रण रखने की दृष्टि से दो किले बहुत महत्वपूर्ण थे | एक लौहगढ़ और दूसरा राजमाची का किला | हांलांकि अब तक बहुत से किलों के कुछ ही अवशेष बचे हैं परन्तु लौहगढ़ का किला तुलनात्मक दृष्टि से अब तक अच्छी स्थिति में है |
मुंबई पुणे मार्ग पर लोनावाला के पास एक गाँव है मालावली (मराठी : मालावळी )| यहाँ से मात्र ५-७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित लौहगढ़ का किला पर्यटकों और ट्रेकिंग के शौकीनों को हमेशा ही आकर्षित करता है |

योजना :
पिछले कुछ सप्ताहांत खाना पकाने और खाने में ही निकल गए और अब समय था सह्याद्रि की हरीतिमा और सौंदर्य का सुखद अनुभव लेने का | अमोल से पता चला कि लोनावाला के पास लौहगढ़ का किला बहुत प्रसिद्द है ट्रेकिंग के लिए और वहां से खूबसूरत बांध के दृश्य भी दिखते हैं | बस हमारा विचार बन गया कि शुक्रवार की रात में लौहगढ़ के लिए निकल लेंगे | अंत में जाने तक हम तीन ही लोग बचे थे , मैं , मयंक और सौरभ | जाने का रास्ता पता कर लिया था और बाकी दिशानिर्देश खांड्गे जी ने दे दिए थे |

मुंबई से लोनावाला :
इन्टरनेट पर महाराष्ट्र राज्य परिवहन की वेब साईट पर खोज बीन की तो पता चला की मालावली गाँव (जो कि लोनावाला के आगे है) के लिए एक बस रात में करीब 1:40 पर दादर से चलती है | मैं और सौरभ अपना बैग ले कर नहीं गए थे तो ऑफिस से वापस लौटे और बान्द्रा में मयंक के घर पर १०.३० पर मिलने की बात हुई | घर जा कर हमारे पास समय था तो स्वादिस्ट परांठे बनाये और जब अपने हाथ का बना खाना हो तो खाने की कोई सीमा नहीं होती | यही हुआ और आलम ये था की हम दोनों की घर से हिलने की इच्छा मर सी गई | मयंक को फोन किया तो पता चला वो और शफीर (हमारे दोस्त) भी भरपेट खा चुके थे | लेकिन हमारे लीडर सौरभ के जोर देने पर हम दोनों आखिर निकल पड़े |
११:३० पर बान्द्रा पहुंचे और एक बार फिर से विचार किया की चला जाये या सो जाएँ | शुक्रिया शफीर भाई का जिन्होंने चाय बना कर पिलाई और हम लोग १२:३० पर निकल पड़े दादर के लिए |
करीब १ बजे दादर पहुंचे तो पता चला की मालावली के लिए १:४० वाली बस सेवा अब बंद हो चुकी है | तुंरत विचार आया की लोनावाला के लिए सुबह ५ बजे ट्रेन मिल जायेगी | परन्तु तब तक क्या करें | वहां पर पुणे के लिए राज्य परिवहन की आखिरी बस लगी हुई थी | बस के ड्राईवर से बात की तो उसने बताया की वो मुंबई पुणे महामार्ग पर हमको लोनावाला के पास उतार देगा | यह प्लान भी ठीक ही था तो हम बस में बैठ गए | इतना खाने के बाद कब नींद आई कुछ पता भी नहीं चला और ड्राईवर के २-३ बार आवाज़ देने के बाद हमारी आंख खुली |
करीब ३:३० हो रहा था सुबह का और हम बस से उतर चुके थे | आँखों में नींद भर कर जब हम उतरे तो अचानक हम तीनो की रूह भी काँप गयी| मूसलाधार बारिश और तेज चलती ठंडी हवा हड्डियों तक पहुँच रही थी | नींद के इस झोंके में समझ भी नहीं आया कि कहाँ जाना है | घना अँधेरा , बारिश और सर्द हवा | ऐसे में हम महा मार्ग पर खड़े थे जहाँ तेज़ चलती गाड़ियों के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था | करीब ५ मिनट खड़े रहने के बाद हमको एहसास हुआ कि हम फ्लाई-ओवर के उपर खड़े थे | यहाँ से एक रोड नीचे उतरती दिखी तो उस तरफ से नीचे उतरे | लेकिन अब क्या | यहाँ तो फिर सड़क थी और हमें किस तरफ जाना था ये नहीं पता था | सुबह समझ में आया कि ये पुराना मुंबई पुणे हाई वे था | इस सड़क पर एक तरफ मुंबई और एक तरफ पुणे का बोर्ड लगा था लेकिन लोनावाला का कोई नाम नहीं | अब तक भीग चुके थे और काँप रहे थे | कुछ देर बाद इसी फ्लाई-ओवर के नीचे शरण लेने का विचार बना लिया और सुबह उजाला होने पर आगे बढ़ने की सोची |

फ्लाई-ओवर के नीचे कुछ दुकाने भी बनी हुई थी| कुछ बेंच भी लगी हुई थी | यहाँ पर बैठने पहुंचे तो देखा कि उपर से बारिश का पूरा पानी आ रहा था | एक कोने में दुकान के शटर के सामने बैठ गए और यकीन मानिये उस हालत में मैंने और मयंक ने नींद की झपकी भी ले ली | सौरभ को नींद नहीं आई और वो इधर उधर भटक रहा था | थोडी देर में उजाला होने लगा और कुछ कुछ दिखने लगा था | एक तरफ कुछ घर से दिखे तो हम उस दिशा में बढ़ने लगे | थोडा आगे चलकर लोग भी दिखने लगे थे | पता चला कि वहां से करीबन १ किलोमीटर दूर लोनावाला था | थोडी दूर चलने के बाद एक जगह आमलेट-पाव खाया और चाय पी | चाय वाले ने बताया कि ७ बजे लोनावाला से पुणे के लिए पहली लोकल निकलती है जिसको पकड़ कर हम पहले स्टेशन मालावली पर उतर सकते हैं |

लोनावाला से मालावली और भाजे गाँव :
थोडी ही दूर पे स्टेशन था | यहाँ से ७ बजे की पुणे के लिए पहली लोकल पकडी | अगला स्टेशन मालावली था और हम लोग उतर गए |थोडी फोटोग्राफी की स्टेशन पर और बाहर निकल गए | स्टेशन से बाहर निकल कर एक छोटी सी दुकान थी | यहाँ चाय पी और रास्ते के लिए कुछ वड़ा पाव और बिस्कुट खरीद लिए | अब यहाँ से आगे बढ़ चले | लोहगढ़ का ट्रेक भजे गाँव से प्रारंभ होता है जो मालावली से २-३ किलोमीटर दूर है | यहाँ तक पक्की सड़क पर ही चलना था | रास्ते पर ही कुछ झरने मिलने शुरू हो गए जो आगे के ट्रेक के लिए अच्छा संकेत था | सप्ताहांत और आसान ट्रेक होने की वजह से यहाँ पर लोगों की भीड़ भी ज्यादा थी | बहुत से लोग तो बस भाजे गाँव से पहले वाले झरने का आनंद लेने ही आये हुए थे | सौरभ ने कुछ जगहों पर पानी में जा कर आनंद लिया और फिर हम आगे चल पड़े क्योंकि हमारी मंजिल तो लोहगढ़ थी |

भाजे गाँव से लौहगढ़ :
यह ट्रेक बाकी ट्रेक्स की तुलना में बहुत आसान है परन्तु यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है | चारों तरफ झरने ही झरने और हरियाली ट्रेक को बहुत ही सुन्दर बना देती है | यहाँ पर दो किले हैं , वीजापुर किला और लोहगढ़ किला | साथ ही कुछ गुफाएं भी हैं | भाजे गाँव से आगे बढ़ते ही एक रास्ता काली गुफाओं की तरफ कट जाता है जो की सामने दिखती हैं | लेकिन हम लोग सीधे लोहगढ़ की तरफ चल दिए | ये रास्ता एक कच्ची सड़क जैसा है और बीच में शोर्ट कट्स आपको सीधे उपर की तरफ ले जाते हैं |
इस रास्ते पर तकरीबन आधे घंटे चलने के बाद एक छोटा सा घास का मैदान सा दिखा | हम लोग रास्ते से अलग हट कर इस तरफ चल दिए | ये जगह वास्तव में बहुत ही सुन्दर थी | पीछे लोहगढ़ किले वाली पहाडी और उसमे न जाने कितने झरने |
शांत वातावरण में उस पानी की मधुर ध्वनि उस जगह को और भी आकर्षक बना दे रही थी | कुछ देर तक यहीं पे घूमते रहे , कुछ फोटोग्राफी की और विडियो भी बनाये |लोहगढ़ का किला पहाडी के उपर था जो बादलों से ढका हुआ था और ये दृश्य इतना सुन्दर था कि में शब्दों में नहीं लिख सकता | अब वापस रास्ते पर जाने के लिए सीधा उपर की तरफ चढ़ने लगे | थोडा उपर चल कर रास्ता मिल गया | यहाँ भी छोटा सा समतल मैदान था और एक चाय की दुकान भी मिल गई | यहाँ रुक कर चाय पी और नज़रों का आनंद लिया | यहाँ से बारिश बहुत तेज़ होने लगी थी इसलिए कुछ देर यहीं पे रुक गए |
यहाँ से एक रास्ता वीजापुर के लिए चला जाता है जो कि सामने वाली पहाडी पर है | बारिश कम होने पर हम लोहगढ़ वाले रास्ते पर चल पड़े |
थोडा आगे चलते ही हम विजापुर किले वाली पहाडी कि तलहटी में थे और पहाडी के उपर से एज झरना गिर रहा था | हवाओं की गति बहुत ज्यादा थी और वो इस पानी को दूर दूर तक उड़ा ले जा रही थी | यह दृश्य देख कर तो कदम थम से गए | हम यहीं पर खड़े खड़े बहुत देर तक यही देखते रहे | इतना सुखद अनुभव तो अब तक किसी ट्रेक में नहीं हुआ था | अब यहाँ से आगे बड़े लोहगढ़ कि तरफ | थोडी दूर पर एक छोटी सी दुकान दिख गई | यहाँ पर गरमा गरम भुट्टों का आनंद लिया और आगे बढ़ने लगे | कुछ देर बाद हम लोहगढ़ कि तलहटी में थे | यहाँ से सीढियां शुरू हो जाती हैं जो लोहगढ़ तक जाती हैं |



लोहगढ़ किले में :

नीचे से देखने पर ही इस किले कि भव्यता का अंदाजा हो जा रहा था | विशाल द्वार और उपर बुर्ज नीचे से ही दिख रहे थे | इस किले को पहाडी के इतना उपर इतनी खूबसूरती से बनाया गया था कि हम सब देख कर अचंभित रह गए | इस निर्माण को देख कर हम लोग उस समय की स्थापत्य कला और तकनीकी कौशल की आज कल के निर्माण से तुलना करने लगे | वास्तव में इतने वर्ष बीत जाने पर भी यह किले गौरवशाली इतिहास की याद दिलाते हैं |
किले के मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करने के बाद एक छोटी सी गुफा है | गुफा के बाहर उपर चट्टानों से पानी गिरता रहता है | इसके बाद उपर चढ़ने पर सामने पवाना बाँध का सुन्दर दृश्य सामने था | चूँकि अभी बारिश हो रही थी तो हमने आगे बढ़ कर किले में घूमना उचित समझा | थोडा आगे बढ़ने पर एक और द्वार था | इस द्वार के आगे जाने पर सामने किले का बुर्ज आ जाता है जहाँ पर झंडा फहराया जाता है | थोडा और आगे जाने पर एक शिव मंदिर है |


इसके पास में ही एक पुरानी छोटी सी मस्जिद भी बनी हुई है | अब तक हम लोग पूरी तरह भीग चुके थे और किले के उपर जाने पर हवाएं इतनी तेज़ थी की कंकंपी छुट रही थी | इसके थोडा और उपर चढ़ने पर एक मजार है जहाँ पर तेज़ हवाओं की वजह से रुकना नामुमकिन हो गया | हमें उम्मीद थी कि यहाँ से सामने के सुन्दर दृश्य दिखेंगे लेकिन सब बादलों और कोहरे में ढका हुआ था |

अविस्मरनीय अनुभव : उपर आता झरना



सौरभ दूसरी दिशा में कहीं जा चुका था और घने कोहरे कि वजह से दिख नहीं रहा था | तभी उसकी आवाज़ आई | वो हमको बुला रहा था| लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि किस तरफ जाना है | थोडी देर में वो दौड़ता हुआ आया और उसने बताया कि बहुत ही अच्छी जगह दिख पड़ी है उसे | किले के उपर ही दूसरी तरफ एक झरना था | यहाँ पहुँचने पर अचानक पानी कि तेज़ बौछारें हमपे पड़ने लगी | अरे वाह ! हम झरने के उपर थे और नीचे से आती तेज़ हवा गिरते हुए पानी को वापस उपर फैंक रही थी | सह्याद्रि के मेरे अब तक के सारे ट्रेक्स में सबसे खूबसूरत अनुभव यही था |

इस झरने का विडियो देखें :


यहाँ पर हम करीब १ घंटे तक रुके रहे | हवाए इतनी तेज़ थी की मानो उड़ा ले जाएँगी और ठण्ड से सब काँप रहे थे | कोहरे की वजह से लोग इस तरफ नहीं आ रहे थे | बस २-३ और लोग थे यहाँ पर | हम बिलकुल किनारे पे खड़े थे और अचानक हवाओं के साथ कभी कोहरा उड़ जाता तो सामने का सुन्दर दृश्य दिख पड़ता था और अगले ही पल फिर ढक जाता था | इस आंख मिचोली में कुछ दिखा कुछ नहीं दिखा | आखिर अब हम वापस चल पड़े | अचानक बारिश तेज़ हो गई और हवाओं की वजह से हम सब काँपने लगे | कोई सर छुपाने की जगह भी नहीं थी | कांपते कांपते किले के द्वार की तरफ आये | यहाँ एक चाय की छोटी सी दुकान थी |
चाय पीने के बाद वापस नीचे उतरे तो वो जगह आ गई जहाँ वापसी में रुकने वाले थे | यहाँ कोने में जा कर बैठ गए और पावना बांध के सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया | करीब आधे घंटे तक यहाँ बैठे रहे | हवा के साथ उड़ते बादल , कभी धूप कभी बारिश और मौसम के इतने रंग | सामने के दृश्य अवर्णनीय थे |

मुंबई के नज़दीक मानसून में जाना हो तो सबसे अच्छी जगह यही है और आप यहाँ जा कर निराश नहीं हो सकते | यहाँ से फोटोग्राफी करने के बाद अब समय था वापसलौटने का |


लौहगढ़ से मुंबई वापस :
नीचे उतरना भी आसान नहीं था | चट्टानों पे सीढियां बनी हुई थी और उपर से तेजी से पानी बह रहा था | धीरे धीरे नीचे उतरने के बाद किले की तलहटी में चाय पी | अब तक भूख भी लग गई थी तो वड़ा पाव खाए | इसके बाद धीरे धीरे भीगते हुए वापस मालावली की तरफ चल दिए |

मालावली पहुँच कर पता चला कि लोनावाला के लिए लोकल ट्रेन ५ बजे शाम को आएगी | अभी ३ बज रहा था इसलिए हमने ऑटो से लोनावाला जाना ज्यादा सही समझा | १८० रूपये में हम ऑटो से लोनावाला पहुँच गए | ३:४५ हो चुका था और मुंबई के लिए ४:४५ पर ट्रेन थी | सारे कपडे , बैग और कैमरा भीग चुका था | ऐसे ही भीगे कपडों में हम वापस मुंबई के लिए चल पड़े |

वास्तव में सह्याद्रि में सबसे खूबसूरत और आसान ट्रेक लोहगढ़ ही है | उपर आते झरने के उस अनुभव और रोमांच को मैं कभी नहीं भूल सकता |

फोटो एल्बम यहाँ देखें ...(सौजन्य : मयंक जोशी )

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

सतारा यात्रा -- कास झील और महाराष्ट्र की फूलों की घाटी ....

बहुत लोगों से सुन लिया था की महराष्ट्र में भी सतारा के पास एक मिनी फूलों की घाटी है | मैं अब तक हिमालय की फूलों की घाटी नहीं देख पाया था तो मन था की पहले यहाँ घूम के आया जा सकता है| अगले हफ्ते दीवाली की छुट्टियों में घर जाने का विचार था और इस वजह से गुरुवार तक किसी का भी कहीं जाने का विचार नहीं था| परन्तु शुक्रवार को गाँधी जयंती की की छुट्टी की वजह से ३ दिन का सप्ताहांत मिल गया तो मेरा कहीं जाने का मूड होने लगा |

योजना :
सतारा एक सहज विकल्प, दिमाग में आया परन्तु अब साथ खोजना था | ऑफिस में लोगों से पूछा तो इस सप्ताहांत सब लोग ही व्यस्त थे | आखिरी उम्मीद मयंक से पूछा तो पता चला की उसे भी ऑफिस आना है और रविवार को वो हिमालय में "हर की दून" घूमने जा रहा है | अब मेरे लिए असमंजस की स्थिति थी क्योंकि अगर दो तीन लोग हों तो घूमने का मज़ा ही कुछ और होता है |
थोडी देर सोचने के बाद मैंने शाम को अकेले ही निकलने का मूड बना लिया था परन्तु अचानक मयंक बोला कि अगर एक दिन में हम वापस आ जाएँ तो वो भी चलने को तैयार है | बस अब शाम को ऑफिस के बाद सतारा निकलने का प्लान बन गया |

सतारा:
सतारा महाराष्ट्र में एक जिला है| पुणे से मात्र १२० किलोमीटर की दूरी पर है | सतारा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष श्री शरद पंवार का राजनीतिक गढ़ है साथ ही मराठा राज्य के एतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण है | सतारा के पास बहुत से दर्शनीय स्थल हैं| मिनी फूलों की घाटी ,कास झील, सज्जनगढ़ , थोसेघर जलप्रपात, यवतेश्वर मंदिर आदि सतारा के पास ही हैं|

मुंबई से सतारा :
शाम को निकलने से पहले मुझे याद आया कि कैमरा तो मेरे घर पे ही है और मुझे एक बार घर जाना ही होगा | मेरा घर मुंबई से बाहर मीरा रोड में है परन्तु कैमरा तो लेकर आना ही था तो मैं ६ बजे करीब ऑफिस से निकल कर ८.३० पर मयंक के घर बान्द्रा पहुँच गया | यहाँ मयंक ने चाय पिलाई और ९.३० पर हम दादर के लिए निकल पड़े | दादर से सतारा के लिए हर आधे घंटे पर राज्य परिवहन की बस मिलती रहती है | हमने १०:३० पर बस पकड़ी | दादर से सतारा ५-६ घंटे का सफ़र है और किराया २२५ रुपये |

सतारा से कास गाँव :
सुबह ४:३० पर आंख खुली और हम सतारा बस स्टेशन पर थे | चाय पीने के बाद पूछताछ की तो पता चला कि कास गाँव के लिए बामणोळी वाली बस मिलेगी जो ६ बजे निकलेगी | ६ बजे तक स्टेशन पे बैठे बैठे २-३ चाय पी गए | सतारा के पास सज्जनगढ़ का किला और थोसेघर जल प्रपात भी दर्शनीय स्थल हैं | हमारा प्लान कास से वापस लौट कर समय के अनुसार सज्जन गढ़ और थोसेघर देखने का भी था | ६ बजे बस मिल गई और अभी अँधेरा ही था | कास के लिए बस के कंडक्टर ने दो लोगों का ८६ रूपये का टिकेट काट दिया | हम लोगों को बड़ी हैरानी हुई कि २५ किलोमीटर का टिकेट इतना कैसे ? | खैर वो बोला कि पैसे बाद में लौटाएगा | आज तक इतनी यात्राओं में मेरे साथ ऐसी घटना पहली बार हुई | या तो वो समझ नहीं पाया या फिर उसने जान बूझ कर ज्यादा टिकेट लिया | थोडी देर में कास आ गया तो मैंने उससे टिकेट के बारे में पूछा | इस पर उसने मुझे २० रूपये और दिए और टिकेट वापस ले लिया | अब मैं समझ गया कि उसने १०-२० रूपये शायद अपनी जेब में डाल लिए हैं |

कास झील :
यहाँ पर उतर कर एक तरफ कास गाँव का बोर्ड लगा था और सड़क के दूसरी ओर कास्देवी का मंदिर था | इसके पास से एक रास्ता नीचे कि तरफ जा रहा था | कुछ दूर जाने पर लगा कि झील के इस तरफ तो जंगल था और यहाँ से शायद न उतरना हो | हम वापस सड़क पर आ गए और पीछे की तरफ चलने लगे | उम्मीद थी की कोई दिखेगा तो पूछ लेंगे | थोडी दूर पर एक महिला पानी भरती दिखी तो उससे पूछा लेकिन शायद मेरा मराठी का अल्पज्ञान बीच में आ गया और हम कुछ समझ नहीं पाए | थोडा आगे चलने पर एक रास्ता दिखा जो नीचे झील की तरफ जा रहा था | इस रास्ते पर थोडा चलने के बाद हमको कई तरह के फूल दिखाई देने लगे |यहाँ पर तरह तरह के अनेक रंगों में फूल खिले हुए थे |









यहाँ पर फूल तो थे लेकिन जैसी हमने कल्पना की थी उतने नहीं | हम समझ नहीं पा रहे थे की हम सही रास्ते पर हैं और सही जगह आये हैं या फिर कंडक्टर ने हमको कहीं और उतार दिया है | प्लान इतना जल्दी बना था की मैं इन्टरनेट पर भी कुछ खास देख नहीं पाया था |

कुछ देर फूलों की फोटो लेने के बाद हम आगे बढे | झील के किनारे किनारे ही रास्ता था और दूर दूर तक फैली हुई थी शांत और स्वच्छ पानी की झील |

सुबह सुबह थोडी ठंडी हवा भी चल रही थी जो एक खुशनुमा अहसास दे रही थी | थोडा आगे चलने के बाद झील के किनारे ही एक पत्थर की दीवार पर बैठ गए | प्रकृति के उस सुरम्य वातावरण का वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकता |
अब तक हमको यहाँ पर कोई नहीं दिखा था | बस झील के एक तरफ कुछ गाँव की महिलाएं पानी भरने आ रही थी | कुछ देर यहाँ बैठे रहने के बाद थोडी सी धूप की किरने बादलों के बीच से झाँकने लगी थी | इन किरणों के साथ मौसम थोडा सा गर्म होने लगा और हमारे मन के अन्दर झील में नहाने के विचार उमड़ने लगे |

झील के एक किनारे पर पानी की निकासी थी और यहाँ से छोटी सी धारा नीचे की तरफ जा रही थी | इसी जगह पर उतर गए पानी में | अरे बाप रे ! मयंक चिल्लाया | पानी बहुत ठंडा था और मुझे पानी में उतरने के बाद इस बात का एहसास हुआ | लेकिन थोडी देर में धूप आ गई और अब मज़ा आने लगा | पानी से निकलने के बाद हम बुरी तरह काँप रहे थे | अब बाहर आ कर थोडी देर धूप में सो गए | मुंबई से दूर एकांत में प्रकृति की गोद में खेलने के इस आनंद की तुलना किसी चीज़ से नहीं की जा सकती | कुछ देर यहाँ आराम करने के बाद अब झील के दूसरी तरफ निकल पड़े | हमें फूलों को भी तो खोजना था क्योंकि अब तक इतने फूल नहीं दिखे थे की हम फूलों की घाटी कह सकें | खैर झील के दूसरी तरफ कुछ फूल खिले हुए दिखने लगे थे | कुछ देर यहाँ घूमने के बाद अब वापस सतारा जाना था क्युकी वहां से सज्जनगड भी जाना था | ११ बजे करीब यहाँ से बस मिल गई और हम वापस सतारा की तरफ चल दिए |
अरे ! अभी १-२ किलोमीटर ही आये थे कि सामने फूल ही फूल थे | बदकिस्मती ये थी कि सुबह बस कंडक्टर ने हमको यहाँ उतारना चाहिए था |सुबह अँधेरा था शायद हम लोगों को भी ये जगह नहीं दिख पाई | यही फूलों की घाटी थी | सचमुच ऐसी ही कल्पना की थी हमने | ये घाटी तो नहीं थी परन्तु पहाडी के उपर बड़े बड़े मैदान और पठार थे और इनमे तरह तरह के रंग बिरंगे फूल ही फूल | बहुत ही सुन्दर दृश्य था परन्तु अब हमारे पास समय की कमी थी| बस से ही इन फूलों का आनंद लिया और कुछ फोटोग्राफ भी लिए |

आधे घंटे में हम सतारा के पास पहुँच गए थे | पहाडी के उपर से सतारा शहर का दृश्य बहुत ही सुन्दर था | यहाँ पर कई बार मुझे उत्तराखंड के शहर अल्मोडा की याद आ रही थी| पहाडी पर बसा हुआ यह शहर बहुत ही सुन्दर लगता है | शहर भी बहुत हद तक अल्मोडा की तरह है | पत्थरों से बने हुए पुराने भवन | जगह जगह सीढियां और उपर नीचे बने भवन|

यात्रा का आधे में ही अंत और मुंबई वापसी :
सतारा पहुँच कर बस से उतरने के बाद भूख भी लगी हुई थी| मयंक की तबियत भी कुछ नासाज़ सी लग रही थी | शायद मयंक आज फिर उच्च रक्तचाप (हाई बी पी ) का शिकार बन चुका था | बाहर निकल कर स्वादिष्ट पूरी भाजी खाई और चाय पीने के बाद वापस बस स्टेशन आ गए |
अब सज्जन गढ़ जाना था और पता चला कि अभी बस के आने में समय है | हम एक जगह बैठ कर बस का इन्तेज़ार करने लगे | अब १ बज चुका था और बस अभी तक नहीं दिखी थी | वापस पूछताछ काउंटर पर गए तो पता चला कि बस तो निकल गई और वो इस जगह खड़ी नहीं होती अब | वो बस स्टेशन के दूसरे किनारे पे सवारी ले के चली जाती है | अब मूड थोडा ख़राब हो रहा था क्योंकि हमको वापस जल्दी मुंबई भी जाना था | थोडी देर सोचने के बाद वापस मुंबई जाने का प्लान कर लिया कि फिर कभी आकर सब कुछ घूमेंगे | करीब २ बजे मुंबई की बस मिल गई|
वापसी का सफ़र भी अच्छा था | मुंबई पुणे द्रुतगति महामार्ग पर यात्रा करने का मज़ा भी अलग है | लोनावाला पहुँचते पहुंचे बारिश भी होने लगी और सफ़र और अच्छा हो गया | करीब ८ बजे हम घर पहुँच गए |
शायद इस यात्रा के प्लान में ही कोई कमी रह गई थी जो कुछ कुछ गड़बड़ होता रहा | निकट भविष्य में सतारा की एक और यात्रा करने का मूड है और सारी जगहे घूमनी बची हैं | उम्मीद है जल्द ही हम ये सब भी देख लेंगे |
फिलहाल अगले सप्ताह मयंक "हर की दून " और "केदारनाथ" घूमने जा रहा है और मैं ऋषिकेश, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, अल्मोडा होते हुए उत्तराखंड भ्रमण कर दीवाली पर अपने गृह नगर चम्पावत पहुंचूंगा |


फोटो एल्बम यहाँ देखें ...(सौजन्य : मयंक जोशी )