रविवार, 22 नवंबर 2009

तीन दिवसीय मेगा ट्रेक -- ( रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ ) : भाग तीन |

हरिश्चन्द्रगढ़ मानचित्र :

Data on Harishchandragad was collected during hike of December 28-31, 2003, by Dr. Navin Verma, Dr.Yuvaraj Chavan (Y.B.) and Vitthal Awari (member of YZ Trekkers). The Balekilla route was aided by Dattu Damu Bharmal (of village achnai). Map created by Mahesh Chengalva.
तीसरा दिन :

कुमशेट गाँव में सुहानी सुबह :
कुमशेट गाँव में ये रात बिताना भी अच्छा अनुभव था | आधी रात के बाद ठंडी हवाओं ने नींद में खलल डालना शुरू कर दिया था | फिर भी दिन भर की थकान थी तो सो ही लिए | सुबह तडके ही गाँव में मुर्गों की बांक और दूसरी आवाजों से नींद खुली | सचमुच ये वातावरण बहुत दिनों बाद देखा था सबने | ६ बजे करीब हम सब उठ गए थे | इसके बाद चाय बनाई गई और चाय पीने के बाद आज के ट्रेक की प्लानिंग | इतने में बाड़ू भी आ गए | यहाँ से बिस्तर समेटा तो सौरभ चिल्लाया | हम जहाँ सोये हुए थे उसके नीचे बिच्छू थे | चलो अच्छा हुआ कि किसी को काट नहीं पाए |
हमने सुना था कि हरिश्चन्द्रगढ़ के ट्रेक में एक चट्टान का रास्ता थोडा दुर्गम है | अभिषेक का अचानक मन बदल गया | इस चट्टान के भय की वजह से वो वापस जाने की सोचने लगा | लेकिन अब तो देर हो चुकी थी और बस जा चुकी थी | थोड़ी हिम्मत बढ़ने के बाद वो भी तैयार हो गया |

आखिरी दिन की प्लानिंग :
चूँकि पहले दिन हम रास्ते ही भटकते रह गए और हमारा सारा समय व्यर्थ ही नष्ट हो गया था इसलिए उसकी पूर्ति आज होनी थी | आज हमें कोई अंदाज़ा नहीं था की कितना चलना पड़ेगा परन्तु बाड़ू ने बताया की सब सही रहा तो हम करीबन ४-५ घंटे में हरिश्चन्द्रगढ़ में होंगे | हम सबको इसकी उम्मीद थोड़ी कम ही लग रही थी क्युकी अक्सर गाँव के लोगों और हमारे पैदल चलने की गति में बहुत अंतर रह जाता है | पर किसी तरह भी जाना तो था ही और अगले दिन ऑफिस भी जाना था | आज रात में ही मुंबई पहुंचना था |

कुमशेट गाँव से पछेती वाड़ी गाँव :

करीबन ८ बजे हम तैयार थे और बाड़ू की अगुवाई में हम लोग अगले गाँव पछेती वाड़ी के लिए चल पड़े |
गाँव से आगे थोड़ी देर समतल रास्ते पर ही चलना था और इसके बाद मूला नदी को पार करना था | मूला नदी से थोडा पहले ही जंगल शुरू हो जाता है | इस जंगल में नीचे उतर कर मूला नदी को पार कर फिर उपर चढ़ना है और इसके बाद पछेती वाड़ी गाँव आ जाता है |
मूला नदी को पार करने के बाद इस सुरम्य वातावरण ने सबका मन मोह लिया | कुछ देर सब यहाँ बैठ गए और जंगल के बीच नदी के इस शांत प्रवाह में कुछ खो से गए | यहाँ बाड़ू ने बताया कि इन जंगलों में बहुत सारे जानवर हैं | यह जंगल कलसुबाई-हरिश्चन्द्रगढ़ अभयारण्य के अन्दर आता है | बाघ तो अक्सर गाँव कि तरफ भी आ जाते हैं | अच्छा हुआ कि हम रात में गाँव में ही रुक गए |
इसके बाद उपर चढ़ना था | यहाँ से पछेती वाड़ी ज्यादा दूर नहीं था | उपर जाने के बाद गाँव से ठीक पहले एक जगह विराम लिया | यहाँ से सामने की चोटियों का बहुत ही सुन्दर दृश्य दिख रहा था |

पछेती वाड़ी गाँव और बाड़ू को अलविदा :
बरसात के कुछ दिन बाद ही इन पहाड़ों के उपर पानी की कमी हो जाती है | बाड़ू ने बताया की यहाँ पर उगने वाली फसलें भी अलग हैं | खेतों में कुछ उगाया हुआ था जो मयंक और मुझे उत्तराखंड में उगने वाले "मंडुए " जैसा ही लगा | इसके बाद पछेती वाड़ी आ गया | ये छोटा सा गाँव था | इसके आगे थोड़ी देर एक कच्ची सड़क पर ही चलना था | बाड़ू के इस आतिथ्य और स्नेह ने हम सबका दिल जीत लिया था | बाड़ू ने जाते समय फिर से गाँव में आने का आमंत्रण भी दिया | कुमशेट गाँव के पास एक "अजूबा" नाम की बहुत ऊँची छोटी है | यहाँ पर किला और मंदिर है | इसके पास ही संत वाल्मीकि की समाधि भी है | बाड़ू ने बताया की हम शाम की गाड़ी से गाँव तक आ सकते हैं | गाँव में रात्रि विश्राम कर के हम अगली सुबह वहां जा कर आ सकते हैं | अजूबा के उपर से मुंबई का भी बड़ा सुन्दर दृश्य दिखता है | अब १० बज चुका था और हमारी मंजिल अब भी दूर थी | बाड़ू के निमंत्रण को बहुत जल्द स्वीकार करने की बात कह कर बाड़ू से विदा ली और हम अगले गाँव पाचनै की तरफ बढ़ चले |

पछेती वाड़ी से पाचनै गाँव की तरफ :
बाड़ू ने हमें रास्ता दिखा दिया था साथ की हरिश्चन्द्रगढ़ की दिशा भी | अब रास्ता आसान था परन्तु सूरज चढ़ने लगा था | थोड़ी दूर सड़क पर ही चलते रहे और एक जगह पानी की धारा मिली तो विश्राम लिया और पानी भर लिया |
यहाँ से पाचनै गाँव तक बिना विराम लिए चलते रहे | बीच में कहीं एक शोर्ट कट भी पड़ता था परन्तु सड़क से जाना आसान होगा ये सोचकर हमने सड़क का रास्ता ही लिया | करीबन १२ बजे हम लोग पाचनै गाँव के पास पहुँच गए | गाँव से ठीक पहले ही एक रास्ता हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए उपर जा रहा था | हम यहीं रुक गए | चूँकि अब तक कुछ भी नहीं खाया था तो भूख भी लगने लगी थी |

पाचनै गाँव से हरिश्चन्द्रगढ़ की ओर :
दूर खेत पर एक महिला काम करती दिखी तो मैंने आवाज़ लगा के पूछा "मौशी ! गाव ला चहा ची दुकान आहे का ? " मौशी ने बताया कि गाँव में कोई दुकान नहीं है | हमारी चाय पीने की उम्मीदों पर भी विराम लग चुका था | यहाँ १५ मिनट विश्राम किया और १२:१५ पर हमने चढ़ाई शुरू कर दी |



थोडा आगे जाने पर एक दो लोग मिले जो खेत में काम कर रहे थे | इन्होने बताया कि उपर खाने का छोटा सा ढाबा है और करीबन २ घंटे में हम उपर पहुँच जायेंगे | हमें आगे का रास्ता जल्दी तय करना था लेकिन ये चढ़ाई बहुत कठिन थी | करीबन १ घंटा चलने के बाद हम एक बहुत ही सुन्दर जगह पर पहुँच गए | एक विशाल चट्टान की तलहटी में संकरा सा रास्ता था | इसकी तलहटी में छोटी सी गुफाएं भी थी जहाँ आप रुक सकते हैं | यहाँ से सामने के दूर दूर तक फैले दृश्य देख कर थकान कुछ कम हुई | थोड़ी फोटोग्राफी करने के बाद आगे बढ़ गए | अब थोड़ी देर तक चढ़ाई ज्यादा नहीं थी | कुछ लड़के नीचे आ रहे थे जिन्होंने बताया कि अब हमको १ घंटे से ज्यादा नहीं लगेगा | लेकिन इसके साथ इन्होंने एक और बात बताई जिससे सब थोड़े निराश से हो गए | उपर कोई दुकान नहीं थी | शायद सप्ताहांत पर ही वहां खाने को कुछ मिलता होगा और आज सोमवार था |

फिर भटके रास्ता :
अब क्या किया जा सकता था | जाना तो था ही, बढ़ चले आगे | थोडा आगे जाने पर एक बड़ा सा पानी का बरसाती नाला था | बड़ी सी चट्टान पर साफ़ पानी तेज़ी से बह रहा था | पानी के प्रवाह से बीच बीच में चट्टान में ही बड़े बड़े गड्ढे बन गए थे जिन्होंने तालाब का आकर ले लिया था | ये पानी इतना शीतल था कि यहाँ हाथ मुह धोने के बाद तो सारी थकान काफूर हो गई |
लेकिन यहाँ पर हम एक गलती कर बैठे | यदि कोई इस रास्ते से जा रहा है तो ध्यान रहे कि इस पानी कि धारा को पार नहीं करना है | यहाँ पर रास्ता नहीं दिखता लेकिन इसके किनारे पर ही थोडा उपर जा कर रास्ता मिल जाता है | हम इसको पार कर के सामने दिख रहे रास्ते पर चल पड़े और करीबनआधा घंटा नष्ट कर वापस यहाँ पहुंचे |
इसके आगे थोड़ी कठिन चढ़ाई थी और हमको लग रहा था कि यही आखिरी चढ़ाई होगी | अब सब थक के चूर हो चुके थे लेकिन चढ़ते ही जाना था | सौरभ सबसे आगे चल रहा था और हरिश्चन्द्रगढ़ से ठीक पहले ३-४ बार ऐसा हुआ कि लगता बस इसके उपर और नहीं होगा लेकिन उपर जा के फिर चढ़ाई ही दिखती | धीरे धीरे चलते हुए आखिरकार सौरभ को मंदिर दिख गया | यह मंदिर चोटी पर नहीं है और थोड़े गहरे जगह पर बना हुआ है | इसके आस पास बहुत सारी गुफाएं हैं जिसे हरिश्चन्द्रगढ़ मंदिर संकुल के रूप में देखा जा सकता है |चारों तरफ छोटे छोटे मंदिर भी हैं |

हरिश्चन्द्रगढ़ मंदिर संकुल और भूखे ट्रेकर्स :

अब हम मंदिर से २०० मीटर दूर थे और जल्दी से हम इस मंदिर संकुल के पास पहुँच गए | यहाँ पर दो छोटे से मंदिर थे | अब बिना कुछ सोचे सबने बैग निकल दिए और बैठ गए | सौरभ कैमरा ले कर फोटोग्राफी करने लगा | मयंक को याद आया कि चाय के सामान में चीनी बची हुई है | भूख से सब बेहाल हो चुके थे और चाय के लिए दूध पावडर जो ले कर आये थे ख़त्म हो चुका था | बची हुई चीनी निकल कर ऐसे ही खा ली और पानी पी लिया | मुंह में कुछ जाने के इस आनंद को एक भूखा ही समझ सकता है | अचानक सौरभ को याद आया कि हमारे पास जैम भी है | इसे मैं ब्रेड के साथ खाने के लिए ले कर आ गया था लेकिन ब्रेड लाना भूल गए थे | अरे ये क्या ! जैम की छोटी सी बोतल टूट चुकी थी | ये अतिशयोक्ति नहीं है की हमने फिर भी धीरे धीरे कांच के टुकड़ों को अलग किया और जितना खा सकते थे खा लिया | ये कम नहीं था कि मयंक के मुँह से कांच के टुकड़े चबाने की आवाजें भी आ रही थी | वास्तव में इस समय ये किसी अमृत से कम नहीं था |

हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर :

अब यहाँ से आगे बढे और मुख्य मंदिर में पहुँच गए | करीब ३ बज चुका था | हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर के दर्शन किये और वापस बाहर आ कर बैठ गए | तभी यहाँ एक आदमी दिखा | इससे थोड़ी बात करने पर पता चला कि सप्ताहान्त पर ही यहाँ खाने को मिल पाता है| हमारी भूखी दशा देख कर उसे याद आया कि उसके पास दूध था | उसने हमसे पूछा कि अगर चाहें तो हम दूध ले सकते थे | ३० रूपये में हमने उससे दूध ले लिया | झट से सबने थोडा थोडा दूध पिया और अब वापसी की तैयारी करने लगे | यहाँ का मुख्य आकर्षण कोंकण काड़ा है लेकिन हमारे पास समय की कमी थी| साथ ही हम वो चट्टान के दुर्गम रास्ते को अँधेरा होने से पहले पार कर लेना चाहते थे इसलिए हमने अगली बार आ कर कोंकण काड़ा जाने का निर्णय लिया और ट्रेक को यहीं ख़त्म कर वापस जाने की सोची |
इतने में ही उस आदमी ने बताया की मंदिर के ठीक नीचे केदारेश्वर गुफा है | हमें भी ध्यान नहीं था कि यहाँ भी जाना था | जल्दी से मैं और सौरभ इस तरफ चल दिए |

केदारेश्वर गुफा :

केदारेश्वर गुफा एक बड़ी सी गुफा है और इसमें पूरे साल पानी भरा रहता है | इसके मध्य में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है | ये सब एक ही चट्टान में उकेरे हुए हैं | शिवलिंग के उपर कुछ छत्र /मंदिर सा बना हुआ है और चारों तरफ चार स्तम्भ | इनमें से २ स्तम्भ टूट चुके हैं | उसने बोला कि हम अन्दर जा कर शिवलिंग के दर्शन कर सकते हैं | बस अब क्या था ! मैं और सौरभ घुस पड़े पानी में | और एक दम से कंपकंपी छूट गयी | ये पानी इतना ठंडा होगा ये कल्पना भी नहीं की थी | अन्दर जा कर शिवलिंग के दर्शन किये | अब तक अभिषेक भी आ चुका था और वो भी पानी में घुस गया | मयंक इतना थक चुका था कि वो उपर ही रहा और उसने आने से मना कर दिया |

हरिश्चन्द्रगढ़ से वापसी :
यहाँ से वापस जा कर तुरंत कपडे बदले और हम तैयार हो गए वापसी के लिए | इस कुण्ड में एक डुबकी ने मानो सारी थकान गायब कर दी थी | उन सज्जन ने हमको तोलार खिंड कि तरफ का रास्ता दिखाया और ३:३० पर हम चल पड़े |
यहाँ से रास्ता ज्यादा कठिन नहीं था और छोटी छोटी पहाड़ियों के शिखरों पर उतरना चढ़ना था | अब सब तेज़ी से चल रहे थे क्योंकि चट्टान के रास्ते का भय सबको ही था | अभिषेक हम सब में सबसे ज्यादा डरा हुआ था |

तोलार खिंड से पहले चट्टान का दुर्गम रास्ता : एक धोखा
एक घंटे में हम तोलार खिंड के उपर थे | यहाँ से सामने खीरेश्वर गाँव और बड़े से बंद के सुन्दर दृश्य दिख रहे थे | थोड़ी देर इन सब दृश्यों का आनंद लिया और फिर जल्दी से नीचे उतरने लगे | लेकिन ये रास्ता तो इतना मुश्किल नहीं था जितना हमने सुना था | बड़े आराम से हँसते हँसाते हम नीचे उतर रहे थे | बरसात के समय ये रास्ता थोडा मुश्किल है क्योंकि चट्टानों पर फिसलन हो जाती होगी | लेकिन सूखे मौसम में बिलकुल भी डरने की बात नहीं है | बीच बीच में अलग अलग तरह से फोटो भी ले रहे थे की कुछ तो डरावना लगे लेकिन सब खुश थे कि ये तो आसान था | साथ ही इन्टरनेट कि जानकारियों को कोस भी रहे थे | अगर इतना हौव्वा नहीं बनाया होता तो हम कोंकण काड़ा भी देख के आ गए होते | आधे घंटे में हमने ये पार कर लिया और हम ५ बजे तोलार खिंड में थे |

तोलार खिंड से खीरेश्वर गाँव:
यहाँ से आगे जंगल के रास्ते पर उतरना था | उपर से देखने पर खीरेश्वर गाँव पास ही लग रहा था परन्तु यहाँ से बहुत समय लगा | करीब ६ बजे हम इस जंगल से बाहर निकल पाए | यहाँ एक घर था और चाय की दुकान भी | यहाँ भी खाने के लिए कुछ नहीं मिला | दुकान वाले ने बताया की यहाँ पर ३ महीने से फिल्म "रावण " की शूटिंग चल रही थी और वो उसमें काम कर रहा था | इसलिए सारा सामान ख़त्म हो गया है | उसने अपने मोबाइल फोन में फिल्म की शूटिंग की फोटो भी दिखाई | यहाँ चाय पीने के बाद हम गाँव की तरफ चल पड़े | हमे गाँव में नहीं जाना था और गाँव से पहले ही बाँध के किनारे किनारे महा मार्ग की तरफ जाना था | गाँव के पास आते आते ७ बज चुका था | खीरेश्वर बांध बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था | गाँव से इस बांध के किनारे किनारे कच्ची सड़क पर ५ किलोमीटर चलने के बाद महा मार्ग था |

मुंबई नांदेड़ महामार्ग : वापसी मुंबई को
अब तक हमारे पैर "वाकिंग मशीन " की तरह हो चुके थे | यकीन मानिये हमको पैर उठा कर चलने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ रही थी | शायद वो सुन्न हो चुके थे और खुद बखुद चले जा रहे थे | करीबन ८ बजे हम महा मार्ग पर थे |
अब सबके चेहरे पर बड़ा सा प्रश्न चिन्ह सा दिख रहा था | अब क्या ? यहाँ पर कोई गाड़ी रुकने के आसार नहीं दिख रहे थे | यहाँ से थोड़ी दूर पर थोड़े घर थे और मयंक उस तरफ पता करने चला गया | उसने बताया की महा मार्ग पर थोडा दूर जा कर ढाबे हैं और वहां बस रुक सकती है | अब क्या था चल पड़े | करीब १ किलोमीटर चलने के बाद एक ढाबा मिला | यहाँ चाय पी और इसने बताया कि राज्य परिवहन की बस शायद ही यहाँ पर रुके | चूँकि ये आदिवासी इलाका था और पास में माल्शेज़ घाट के घने जंगल भी थे | इसलिए यहाँ रात में कोई गाडी आसानी सेरूकती नहीं | चाय पीने के बाद हम सड़क पर आ कर खड़े हो गए | करीब ९ बज चुका था और मुंबई अभी दूर था | यहाँ से करीबन १०० किलोमीटर दूर कल्याण था और वहां से २ घंटे हमे बान्द्रा जाने में लगते | सबसे बड़ी बाद थी की अगले दिन सुबह ऑफिस जाना था |

ट्रक की यात्रा मुंबई तक :
९:३० हो चुका था और कोई बस नहीं रुकी थी | इतने में सौरभ के हाथ देने पर एक मिनी ट्रक रुक गया | इसने बताया की ये मुंबई तक जायेगा | हांलांकि इसमें हम चारों के बैठने की जगह नहीं थी पर दूसरा विकल्प भी नहीं था | मैं सबसे हल्का ही हूँ इसलिए सबके बैठने के बाद मैं किसी तरह सौरभ के पैरों पर बैठ गया और ट्रक चल पड़ा | अब सफ़र अच्छा था और महा मार्ग पर बिना रुके सीधे मुंबई तक जाना था | ट्रक ड्राईवर ने बताया कि यहाँ पर अक्सर
आदिवासी लोग प्राइवेट गाड़ियों को लूट लेते हैं | इसलिए रात में कार ले कर लोग इस तरफ नहीं आते | इस ट्रक का शीशा भी टूटा हुआ था और उसने बताया कि कुछ दिन पहले यहाँ पर उसके ट्रक पर भी लोगों ने पत्थर मार कर शीशा तोड़ दिया है | खैर उसके ट्रक में दूध था और हमारे पास कुछ भी नहीं |

पहुंचे मुंबई : अविस्मर्णीय ट्रेक की सकुशल समाप्ति
रास्ते में एक जगह चाय पी और करीब १२ बजे हम मुंबई में थे | ट्रक ने हमे मलाड में छोड़ा | यहाँ से अभिषेक अपने घर चला गया | हम लोगों ने कल रात से कुछ नहीं खाया था इसलिए सबसे पहला काम था खाना खाना | एक जगह खाना खाया और करीबन २ बजे रात में हम बान्द्रा पहुँच गए | बेहद थका देने वाले , रोमांचक और अविस्मर्णीय ट्रेक का सुखद अंत हुआ और अगले दिन सुबह ९ बजे हम सब ऑफिस भी पहुँच गए |

सोमवार, 16 नवंबर 2009

तीन दिवसीय मेगा ट्रेक -- ( रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ ) : भाग दो |

दूसरा दिन :

रतनगढ़ की अविस्मरणीय सुबह :


रतनगढ़ की इस गुफा में रात बिताने का अनुभव सबके लिए बड़ा ही सुखद और नया था | आधी रात तक तो आग ने साथ दिया मगर फिर वो भी बुझ गई | अब ठंडी हवाओं का दौर शुरू हो गया था साथ ही ठण्ड भी पड़ने लगी थी | खैर रात अच्छे से कट गई और सुबह ५:३० के करीब मैं और सौरभ उठ गए | मौसम हल्का सा ठंडा था और सुबह के दृश्य बेहद ही खूबसूरत | सच कहूँ तो इस सुबह को मैं कभी नहीं भूल सकता | सामने पहाड़ियां , विशालकाय झील और उसके आस पास बसे हुए गाँव : सचमुच प्रकृति की इस सुन्दरता को अवर्णनीय ही कहा जाये तो अच्छा है | अभी सूर्योदय नहीं हुआ था और क्षितिज पर बिखरे सिन्दूरी रंग अनूठी छठा बिखेर रहे थे | इन दृश्यों के आनंद के साथ अब हमको जल्दी निकलना भी था क्योंकि बिना किसी गाइड के ही हरिश्चन्द्रगढ़ जाना था जो यहाँ से कम से कम १२ घंटे का ट्रेक था |

इसका मतलब यह था कि यदि हम ७ बजे निकलते हैं तो शाम को ७ बजे के पहले पहुँचने की कोई भी सम्भावना नहीं है | और इसके उपर हम शहर के लोग जिन्हें चलने फिरने की आदत बिलकुल भी नहीं रही | सौरभ रतनगढ़ के उपर पानी लेने चला गया और मैंने आग जला कर चाय बनाने का इंतज़ाम कर दिया | अब तक अभिषेक भी उठ गया था और चाय बनाने के बाद मयंक को भी उठा दिया |
इस सुबह ने सबका मन ऐसा मोह लिया था की चाय के गिलास पकड़ कर सब लोग गुफा के बाहर ऐसे बैठ गए जैसे अब आगे किसी को नहीं जाना | थोड़ी देर फोटोग्राफी करने के बाद अब बिस्तर समेट लिया गया | सारा सामान बांधने के बाद गुफा की सफाई कर सब तैयार थे हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए |

हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए प्रस्थान :
अभी अभिषेक का इन सीढ़ियों से उतरने का भय बरक़रार था तो उसे हिम्मत बंधाते बंधाते धीरे धीरे सकुशल सीढ़ियों के नीचे आ गए | ८ बज चुका था और अब जल्दी जल्दी मंजिल की तरफ बढ़ना था | थोडा नीचे उतरने के बाद वो जगह मिल गई जहाँ से हरिश्चन्द्रगढ़ का रास्ता पकड़ना था | यहाँ से दायीं तरफ चलने के बाद थोड़ी देर में एक पानी का तालाब मिल गया | यहाँ एकदम साफ़ पानी था तो सबने हाथ मुँह धो लिए और बोतलें भर ली गयी | यहाँ से हमें तिरछे तिरछे ही जा कर एक पहाड़ से दूसरे में जाना था और उसके आगे हमारी अगली मंजिल थी कटारबाई खिंड (खिंड : पास / दर्रा )| कटारबाई खिंड को पार कर हमें पहाड़ों की इस श्रंखला के उस पार पहुँच जाना था जहाँ से नीचे उतरकर कुमशेट गाँव मिल जाता है | थोड़ी दूर तक रास्ता साफ़ दिख रहा था और हम बड़ी आसानी से चलते रहे | इसके बाद जंगल शुरू होने लगा और साथ ही पगडंडियों का मकड़जाल | सब लोगों ने जो बोला था वही हो रहा था | वास्तव में ये जंगल घने थे और यहाँ बहुत से रास्ते थे | सही रास्ते का अनुमान लगाना बहुत कठिन होने लगा था | बस हमें कटारबाई खिंड की दिशा का हल्का सा अंदाज़ा था क्योंकि लोग जो बता रहे थे वो हम मराठी के अल्पज्ञान की वजह से कुछ कुछ ही समझ पा रहे थे |

सुबह सुबह जंगल में सुखद ट्रेक :
सौरभ के कहने पर हम एक रास्ते पर कुछ देर चलते रहे | उसका अंदाज़ा था कि अगर ये रास्ता आगे जा कर दायीं ओर मुड़ा तो इस पर चलेंगे अन्यथा वापस आ कर दूसरा पकड़ लेंगे | ये बात सही लग रही थी इसलिए सब चल पड़े | इस पर चलते चलते करीब १५ मिनट हो गए परन्तु अब कुछ समझ नहीं आ रहा था | यहाँ से वापस आये और दूसरे रास्ते पर चल पड़े | ये रास्ता उपर की तरफ जा रहा था | मुझे लगा था कि शायद इसके उपर ही कटारबाई खिंड हो | करीब आधा घंटा चलने के बाद हम पहाडी के उपर थे | यहाँ से एक रास्ता नीचे उतर रहा था और एक और उपर की तरफ जा रहा था | चूँकि हम जंगल के बीच में थे इसलिए कुछ दिख भी नहीं रहा था जिससे दिशा का अनुमान लगे | एक बार को लगता कि शायद ये ही कटारबाई खिंड हो परन्तु अभी तो हम १ घंटा ही चले थे और वो इतना नज़दीक भी नहीं | पता नहीं क्या सोच कर सबने नीचे की तरफ जाने का निर्णय ले लिया | थोड़ी दूर जा कर जंगल कम हुआ और एक मैदान सा आया | यहाँ से हम चारों तरफ देख सकते थे सिवाय नीचे कि तरफ | नीचे कि तरफ जंगल थे तो कुछ नहीं दिख रहा था | इसी सीधे रास्ते पर करीबन १ घंटा नीचे कि तरफ चलने के बाद हमें फिर से झील दिखाई देने लगी | चूँकि इस झील का विस्तार बहुत ज्यादा था और कई पहाड़ियों कि तलहटी तक गई थी तो ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ | थोड़ी देर में नीचे सड़क भी दिखने लगी और गाँव भी | हम सब के मन में एक बार को तो ख़ुशी की लहर दौड़ गई | सबको लग रहा था कि सम्भावना है कि हमने कटारबाई खिंड पार कर लिया और ये ही कुमशेट गाँव होगा |

ट्रेक की सबसे बड़ी भूल : भटके रास्ता
अब जोश के साथ तेज़ी से नीचे की तरफ बढे | करीब १०:३० पर हम सड़क पर आ गए थे | थकान ज्यादा नहीं थी क्योंकि पहाडी से उतरे ही थे | यहाँ से गाँव की दिशा में आगे बढे और लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया कि हम बिलकुल गलत आ गए हैं | दरअसल जो पहाडी के बिलकुल उपर रास्ता मिला था वही कटारबाई खिंड जाता था | यहाँ लोगों ने जब कटारबाई खिंड दिखाया तो सबके होश ही उड़ गए | फिर से उपर जाना था और दूसरे पहाड़ के उपर से उस पार | एक लड़के ने बताया की यहाँ से हमको सीधे पाचनै गाँव के लिए गाड़ी मिल जाएगी | एक बार दिमाग में ख्याल आया कि इतना उपर जाने से अच्छा है गाड़ी से चले जाएँ | परन्तु मयंक के समझाने पर याद आया कि हम तो ट्रेक पे निकले थे | अब सब भूल के कटारबाई खिंड कि दिशा में चढ़ाई शुरू कर दी | थोडा उपर जा कर एक बुजुर्ग से आदमी खेत पे काम करते दिखे | उनसे रास्ते के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि हम फिर से गलत जा रहे हैं और वो थोडा उपर तक चल कर रास्ता दिखा देंगे | मुझे कभी कभी स्वयं पर आश्चर्य भी होता है कि मैं गाँव में काम चलने लायक मराठी बोलने-समझने लगा हूँ | शायद ये बहुत अच्छी बात है कि मैं इतनी जल्दी सीख ले रहा हूँ |

चट्टान का दुर्गम रास्ता : अभिषेक का भय
थोड़ी देर मामा (मराठी में किसी अनजान व्यक्ति के लिए आदरपूर्ण संबोधन ) के साथ चलने पर अचानक सबके कदम रुक गए | नीचे से बरसाती नाला पूरे प्रवाह में बह रहा था और इसके उपर चट्टान में (जहाँ कि मुश्किल से पैर रखने कि जगह थी ) करीबन २५-३० फीट तिरछे जाना था | मामा ने बताया कि या तो यहाँ से जाओ या फिर वापस जहाँ से आये थे पूरा घूम कर जाना होगा | मैं इस रास्ते के लिए तैयार था | सौरभ और मयंक पहले थोडा सहमे परन्तु दूसरे रास्ते पर जाने की बात सोच कर वो तैयार हो गए | परन्तु अभिषेक का चेहरा देखने लायक था | उसने साफ़ मना कर दिया कि ये उसके बस की बात नहीं है | थोड़ी देर समझाने पर वो थोडा थोडा तैयार हुआ | क्योंकि हम में से कोई भी वापस उस लम्बे रास्ते पर नहीं जाना चाहता था |
मामा के पीछे पीछे पहले मैं गया | एक बार को मेरे कदम भी डगमगा गए परन्तु फिर मैं पार हो गया | इसके बाद सौरभ आया और जोश में वो उपर चढ़ गया | दरअसल तिरछा जाना था पर सौरभ कि ये खास बात है कि एक बार जोश आ जाये तो वो कहीं भी चल पड़ता है | खैर वो धीरे से उतर के सही रास्ते पर आया और पार कर गया | धन्यवाद मामा का जिन्होंने अभिषेक को जैसे तैसे वो पार करा दिया | उसने बताया कि उसे ऊंचाई से डर लगता है और उसके चिल्लाने की आवाजों से मामा भी आश्चर्य चकित थे | उसके पार होने पर मामा ने भी सुकून की सांस ली और थोड़ी देर हँसते रहे | इस समय अभिषेक की ख़ुशी का अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता | वह इस रस्ते को पार करने की ख़ुशी में चिल्ला रहा था |
अब सब लोग आ चुके थे | यहाँ से मामा ने कटारबाई खिंड दिखाया | मामा ने कहा की अगर हम उनको २०० रुपये दें तो वो अपने खेत का काम छोड़ कर हमे उपर तक पहुंचा सकते हैं | इसमें सोचना क्या था इतना भटक चुके थे सो हम तुरंत तैयार हो गए |

मामा की सहृदयता : पहुंचे कटारबाई खिंड
अब रास्ता भटकने का भय नहीं था इसलिए जल्दी जल्दी चढ़ने लगे | बीच बीच में छोटे छोटे विराम ले कर चढ़ रहे थे | थोड़ी देर बाद चढ़ाई मुश्किल हो गई परन्तु धीरे धीरे हम करीब १२:३० पर कटारबाई खिंड के उपर पहुँच गए | यहाँ मामा ने बताया की अगर थक जाओ तो कुमशेट गाँव में ही रुक जाना | मामा का नाम काडू था और उन्होंने बताया की उस गाँव में उनके कोई भाई विट्ठल रहते हैं | यह काडू मामा की सहृदयता ही थी की उन्होंने हमें वहां जा कर खाने और रहने का ठिकाना बता दिया | इतनी बार गाँव में जा कर मैं यह कह सकता हूँ कि भाषा और क्षेत्र के नाम पर विभाजन और कटुता कुछ एक स्वार्थी और विघटनकारी तत्व ही पैदा करते हैं | वास्तव में गाँव के सज्जन लोगों की इंसानियत और आत्मीयता इस सब से बहुत परे है | इंसान को इंसान से जोडती है उसकी इंसानियत | मराठी न जानते हुए भी हम लोगों को जो स्नेह मिलता है वो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है |

कटारबाई खिंड से कुमशेट गाँव की तरफ :
अब मामा से विदा ली और उनके दिखाए हुए गाँव की तरफ सीधे रास्ते की तरफ चल दिए | देखने से गाँव बहुत दूर लग रहा था परन्तु मामा के अनुसार २ घंटे में पहुँच जायेंगे | अब तक किसी ने कुछ खाया भी नहीं था इसलिए थकान हावी होने लगी थी | आधे घंटे चले होंगे कि सौरभ को याद आया कि वो कुछ मेवे ले कर आया है | इन मेवों ने हमारी यात्रा में फिर क्या नए गुल खिलाये ये आगे पता चलेगा | दरअसल वो अभी दीवाली पे घर से मेवे रख के लाया था और तुरंत ट्रेक का प्लान बन गया तो उसने सारे रख लिए | एक जगह रुके और थोड़े मेवे खाए | बाकी लोग बादाम कम खा रहे थे लेकिन मेरी भूख का सब्र टूट रहा था | मैंने धीरे धीरे कम से कम ५० बादाम तो खा ही लिए होंगे | हम धीरे धीरे उतर रहे थे क्योंकि रास्ते में मिटटी कि वजह से फिसलने का खतरा था | बस अब सबको किसी पानी के नदी नाले कि तलाश थी जहाँ रुक कर मैगी बनायीं जाये और कुछ पेट भरे | हमारे पास पानी भी आखिर बोतल बचा था | करीब २ बजे एक छोटा सा बरसाती नाला / नदी मिल गई और यहाँ पर छोटा सा झरना जैसा भी था |

दिन का भोजन और बादाम का कमाल :
यहाँ पर थोडा विराम लिया | अब तक सौरभ नहाने कि जगह खोज चुका था | एक एक कर के सब नहाने चले गए और अब मेरा सर घूमने लगा था | मयंक ने मुझे पहले ही टोका था कि इन बादामों की गर्मी सर में लगती है | मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हालत थी | मैं चादर बिछा के वहीँ जंगल में सो गया | मयंक ने आग जलाई और मैगी बनने लगी | मेरी तबियत ख़राब होती जा रही थी और सबके लिए चिंता की बात थी| थोड़ी देर में शाम होने वाली थी और हम वहीँ के वहीँ | मयंक के कहने पर मैं भी ठन्डे पानी में नहाने चला गया | लेकिन कोई फर्क नहीं | अब मैंने सबको बोल दिया कि यदि आधे घंटे में कुछ सुधार नहीं हुआ तो ट्रेक यहीं खत्म | यहाँ से वापस मुंबई लौटने की सोचेंगे | जब तक सबने मैगी खायी तब तक मैं कुछ देर सो लिया | अरे वाह ! संकेत अच्छे थे | मैं अच्छा महसूस कर रहा था और अभी प्लान बाकी था | अब आगे क्या करना है यह गाँव पहुँच कर देखने की सोची और जल्दी जल्दी हम गाँव की तरफ बढ़ चले |

कुमशेट गाँव और बाड़ू का आतिथ्य :

करीबन ५:३० पर हम कुमशेट गाँव में थे | यहाँ जा कर पता किया तो लोगों ने बताया कि अगला गाँव पछेती वाड़ी थोडा दूर है| शाम होने वाली है और रास्ते में जंगल भी है | अब तक सौरभ को गाँव में एक आदमी मिल गया जो हिंदी बोल लेता था | इनका नाम बाड़ू था और अपनी सहृदयता और सत्कार से इन्होने सबका दिल जीत लिया |
इन्होने हमको सलाह दी कि अभी आगे जाना आसान नहीं है | हमको गाँव के मंदिर में रुक जाना चाहिए और सुबह सुबह आगे की यात्रा करनी चाहिए | हम सब को भी यही सही लगा | परन्तु अगले दिन सोमवार था और मंगलवार को सुबह ऑफिस जाना था | यदि हम अगले दिन इतना लम्बा ट्रेक करते तो सम्भावना थी कि देर रात मुंबई पहुंचेंगे |आखिरी दिन कुछ अनहोनी हो गई तो और दिक्कत | यहाँ से एक और विकल्प था कि ट्रेक समाप्त कर दिया जाये | रात में यहीं रुकें और सुबह ६ बजे यहाँ से चलने वाली एकमात्र गाड़ी (राज्य परिवहन की बस ) पकड़ कर वापस चले जाएँ |यहाँ से वापस जाने के लिए सुबह बस पकड़ कर एक गाँव राजुर जाना था | वहां से फिर जीप या बस पकड़ के कसारा और वहां से मुंबई |
थोड़ी देर में ही विचार बन गया की अब आ ही गए हैं तो हरिश्चन्द्रगढ़ भी चले जायेंगे | बस अब सब तय हो चुका था |
गाँव के मंदिर के प्रांगण में बैठकर बहुत देर तक बाड़ू के साथ बात करते रहे | बाड़ू ने हमें पानी के लिए बर्तन भी दे दिया और आग जलने के लिए लकड़ी भी | साथ ही मंदिर से लगे हुए एक ग्रामीण समाज केंद्र के कक्ष के अन्दर खाना बनाने की जगह भी मिल गयी | हांलांकि यहाँ खिड़की दरवाज़े नहीं थे परन्तु सर के उपर छत तो थी | सौरभ ने गाँव के बच्चों से दोस्ती कर ली और वो बहुत देर तक १०-१५ बच्चों के साथ खेलता रहा | शाम होने के साथ मंदिर में भजन शुरू हो गए थे और अभिषेक मंदिर की तरफ चला गया | वास्तव में यह वातावरण इतना सुखद था की मैं शब्दों में लिख ही नहीं सकता | भाषा की दूरियों का तो किसी को एहसास ही नहीं हो रहा था | बाड़ू ने हमारी हर संभव मदद की | हमारे पास पुलाव का सामान था और आग जलाकर पुलाव पकने लगा |

गाँव के मंदिर में रात्रि विश्राम :
थोड़ी देर में बाड़ू जी के घर का बना हुआ स्वादिष्ट केकड़ा भी आ गया | सौरभ और मयंक ने पूरे चाव से वो खा लिया | इसमें गाँव के स्वाद के साथ बाड़ू का स्नेह भी था | बाड़ू से बात हुई तो उन्होंने कहा कि सुबह जल्दी प्रस्थान करना पड़ेगा और वो अगले गाँव पछेती वाड़ी तक हम लोगों को छोड़ देंगे | उसके आगे का रास्ता आसान है | अब खाना खाने के बाद बाड़ू को शुभरात्रि बोल कर हम सब अगले दिन कि चर्चाओं के साथ नींद के आगोश में समा गए |

रविवार, 15 नवंबर 2009

तीन दिवसीय मेगा ट्रेक -- ( रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ ) --- सुखद अनुभव : भाग एक

योजना :
कम से कम १० बार ऐसा हुआ कि हरिश्चन्द्रगढ़ का ट्रेक करने का प्लान बनता और आखिरी लम्हों में पता नहीं कुछ ऐसा हो जाता कि प्लान धरा का धरा रह जाता | यहाँ तक कि ऐसा लगने लगा था कि शायद हम कभी जा पायें या नहीं | इस बार सोमवार की छुट्टी थी और ३ दिन का सप्ताहान्त मिल गया | बहुत दिनों से मन था कि २-३ दिन का ट्रेक किया जाये ताकि मुंबई के कोलाहल से दूर प्रकृति के सुखद अनुभव को लिया जाये | यह सोचकर हमने ३ दिन का रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ का ट्रेक प्लान किया | तीन दिनों तक गाँव और जंगलों में चलना था और गुफाओं में बसेरा करना था | संतोष को किसी काम की वजह से अपने घर (हैदराबाद) जाना पड़ गया तो हम ३ लोग : मयंक , सौरभ और मैं इस ट्रेक के लिए तैयार थे | साथ ही इस बार हमारे ऑफिस के ही मेनेजर साहब (अभिषेक ) भी हमारे साथ चलने के इच्छुक थे तो अब हम चार लोग शुक्रवार का इंतज़ार करने लगे |

रतनगढ़ :

सह्याद्रि पर्वत श्रंखला की सबसे ऊँची चोटियाँ इगतपुरी खण्ड में आती हैं | इसके बाद सह्याद्रि का विस्तार कर्जत से होते हुए पुणे और फिर कोंकण तक है | भन्डारधारा झील के पास स्थित रतनगढ़ ट्रेकर्स को अपने सुन्दर दृश्यों की वजह से बहुत आकर्षित करती है | यहाँ की देवी रत्नेश्वरी देवी के नाम पर इस किले का नाम रतनगढ़ पड़ा | इस किले को छत्रपति शिवाजी ने अपने कब्जे में कर लिया था और यह उनके कुछ प्रिय किलों में से एक था | इस चोटी से चारों तरफ के आकर्षक दृश्य आपके सामने होते हैं | यहाँ से सह्याद्रि की सबसे ऊँची चोटी कलसुबाई और उससे लगी हुई कुलांग-मदान-अलांग चोटियाँ भी पास ही हैं |

हरिश्चन्द्रगढ़ :

हरिश्चन्द्रगढ़ की गणना बहुत प्राचीन किलों में होती है |बहुत से पुराणों (मत्स्यपुराण , अग्निपुराण , और स्कन्दपुराण आदि) में इसका उल्लेख मिलता है | इस किले को छठी शताब्दी में कलचुरी वंश के शासनकाल में बना हुआ माना जाता है | बहुत सी गुफाएं ११वीं शताब्दी में बनी हुई मानी गई हैं | गुफाओं में भगवान विष्णु की मूर्तियाँ हैं | यहाँ के विविध निर्माण इसके बाद यहाँ विभिन्न संस्कृतियों के आगमन को दर्शाते हैं | खीरेश्वर गाँव में नागेश्वर मंदिर , हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर और केदारेश्वर गुफा में बनी अनुकृतियाँ इस किले को मध्यकालीन समय का बताती हैं | इसके बाद यह किला मुगलों के नियंत्रण में था जिसे मराठा वंश ने सन १७४७ में अपने नियंत्रण में ले लिया |
इस एतिहासिक महत्व के साथ ही यहाँ और भी जगहें बहुत प्रसिद्ध हैं : कोंकण काड़ा , तारामती चोटी, केदारेश्वर गुफा ,हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर आदि |

हमारे बस/ट्रेक का मार्ग इस प्रकार था :
मुंबई - इगतपुरी - घोटी - शेंडी गाँव - भन्डारधारा झील - (ट्रेक प्रारंभ )रतन वाड़ी गाँव - रतनगढ़- कटारबाई खिंड (दर्रा / पास )- कुमशेट गाँव - पछेती वाड़ी गाँव - पाचनै गाँव - हरिश्चन्द्रगढ़ - खीरेश्वर गाँव - खूबी फाटा (ट्रेक सम्पूर्ण )- कल्याण - मुंबई |

मुंबई से शेंडी गाँव :
इन्टरनेट पर मिली जानकारी के आधार पर हम लोगों ने पहले महानगरी एक्सप्रेस जो कि रात को १२ बजे मुंबई से चलती है से इगतपुरी निकलने का विचार बनाया | परन्तु जब में इगतपुरी से बस की समय सारिणी देख रहा था तो मुझे संगमनेर की बस का पता चला | मेरी जानकारी के अनुसार हमे इगतपुरी से शेंडी जाने के लिए पुणे की बस पकड़नी थी जो संगमनेर से हो कर जाती है | जब मुझे मुंबई से संगमनेर की बस दिखी तो हमने इसी से निकलने का प्लान बना लिया | करीब ११ बजे रात को हम खाना खाने के बाद महाराष्ट्र राज्य परिवहन के मुंबई सेंट्रल डिपो की तरफ चल पड़े | यहाँ जा कर पता चला की १२ और १ बजे संगमनेर की बसें हैं | १२ बजे वाली बस में बैठने के बाद पता चला कि ये बस तो शेंडी होकर नहीं जायेगी | यह नॉन स्टाप बस है जो नासिक से होते हुए संगमनेर जायेगी | इगतपुरी के अन्दर भी नहीं जायेगी बल्कि बाई पास से निकल जायेगी | अब किसी ने बताया कि १ बजे वाली बस इगतपुरी होकर जाती है | लेकिन १ बजे वाली बस का भी यही मार्ग था |
इस बस के कंडक्टर ने बताया कि वो हमको इगतपुरी के बाहर ही महामार्ग पर उतार देगा जहाँ से हम पुणे वाली बस पकड़ सकते हैं | यही एक मात्र विकल्प था इसलिए इसी बस में बैठ गए | इस बस का कंडक्टर ने थोडा सोचकर हमको दूसरा उपाय बताया कि हम घोटी के पास उतार सकते हैं | घोटी इगतपुरी से थोडा आगे एक छोटी सी जगह है जो पुणे इगतपुरी मार्ग पर है | चूँकि रात में पुणे वाली बस महामार्ग पर रुके या न रुके इसलिए हमने भी ये उचित समझा | १ बजे मुंबई से निकल कर हम ५ बजे घोटी के पास उतर गए | कंडक्टर ने हमको एक शार्टकट रास्ता बता दिया था परन्तु अँधेरे और नयी जगह की वजह से हम ज्यादा समझ नहीं पाए | यहाँ उतर कर थोडा पीछे वापस आये और घोटी के लिए सड़क से ही चल पड़े | १.५ किलोमीटर करीब चले होंगे और हम घोटी में थे और समय ५:४५ हो चुका था | पुणे की पहली बस इगतपुरी से ५:३० पर निकलती है जो थोडी ही देर में आ गई | यहाँ से ६ बजे हमने शेंडी के लिए यात्रा शुरू की और करीब ७:३० पर हम शेंडी गाँव पहुँच गए |

पहला दिन : शेंडी गाँव से प्रस्थान :
शेंडी गाँव में चाय पीने के बाद पूछने पर पता चला की यहाँ से नाव या जीप से रतन वाड़ी तक पहुंचा जा सकता है | सुबह सुबह सबका मन झील से हो कर जाने का था इसलिए एक नाव वाले से बात की तो उसने बताया की उसको १० लोग चाहिए तब वो चलेगा | लेकिन हम तो ४ ही थे | जीप भी पूरी बुकिंग पर ही जा रही थी | उसने हमको झील के किनारे इन्तेज़ार करने को बोला और कहा की और लोग मिलेंगे तो वो ले कर आएगा | नाव का किराया मात्र ६० रूपये प्रति व्यक्ति है |

भन्डारधारा झील:

यहाँ से आधा किलोमीटर दूर है भन्डारधारा झील | प्रवरा नदी पर सन १९१० में बना हुआ यह बाँध, विल्सन बाँध भारत के कुछ सबसे पुराने बांधों में से एक है | भन्डारधारा झील को ऑर्थर लेक भी कहा जाता है | एकदम साफ़ पानी की इस विशालकाय झील की परिधि करीबन ४५ किलोमीटर है | साथ ही यहाँ पर स्थित रांधा झरने को भारत का तीसरा सबसे बड़ा झरना मान जाता है |इस झील के चारों तरफ रतनगढ़ , कलसुबाई , कुलांग-मदान-अलांग , अजूबा और घनचक्कर आदि चोटियों का दृश्य बड़ा ही सुन्दर होता है | हमे इस झील को पार कर रतन वाड़ी पहुँचने के लिए झील में नाव से १० किलोमीटर दूरी तय करनी थी |

बहुत देर तक झील के किनारे बैठे रहे और फोटोग्राफी करते रहे | लेकिन अब तक वो नाव वाला नहीं आया था | आखिर में खुद जा कर उसको खोजा तो पता चला कि उसको कोई और सवारी नहीं मिली | आखिर में ५०० रूपये में बात तय हुई और हम चारों चल पड़े नावकी तरफ |

रतन वाड़ी :
नाव से यह १० किलोमीटर की दूरी तय करना बड़ा ही सुकून भरा अनुभव था | सुबह के सूरज की किरणे , नीला स्वच्छ पानी और वो ताज़ी हवाएं किसी के भी मन को आह्लादित करने के लिए बहुत हैं | नाव वाला बता भी रहा था कि चारों तरफ कौन कौन सी चोटियाँ दिख रही हैं | लगभग १ घंटे में हम लोग झील के उस पार पहुँच गए | यहाँ पर छोटा सा गाँव था (शायद रतन वाड़ी का एक हिस्सा ) और यहाँ से हम आगे बढ़ चले | थोडी देर चलने के बाद ही हमको मुख्य रतन वाड़ी गाँव दिखने लगा | अभी तक हम इस विशाल झील के किनारे किनारे ही चल रहे थे | ११ बज चुका था और सामने रतनगढ़ दिख रहा था | यहाँ पर थोडा रूककर फिर आगे बढ़ने की सोची | बैग रखने के बाद इन सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया और फोटोग्राफी की | इतनी देर तक इतने साफ़ पानी की झील के करीब हों और झील में न घुसें , ऐसा कैसे हो सकता है | एक एक कर के सब झील में घुस गए और फिर ठंडे पानी में अठखेलियों का दौर शुरू हो गया |

अमृतेश्वर मंदिर :

बहुत देर तक यहाँ नहाने के बाद अब सब लोग तारो ताज़ा हो चुके थे और गाँव की तरफ बढे | गाँव के किनारे पर पहुत पुराना अमृतेश्वर महादेव का मंदिर है | मंदिर की दीवारों पर पत्थरों पर सुन्दर शिल्प कला ने सबका मन अभिभूत कर दिया | यहाँ पर शिवलिंग जमीन से नीचे है जो पानी में डूबा हुआ था | अन्दर थोडा अँधेरा सा था और ३-४ सीढियां उतरने के बाद और गहराई का अंदाजा नहीं था तो थोड़े से दिख रहे शिवलिंग के दर्शन किये और वापस आ गए | मंदिर के पास ही एक चाय की दुकान थी यहाँ पर स्वादिष्ट कांदा पोहा खाया , चाय पी और अब ट्रेक का प्रारंभ करना था | यहाँ से रतनगढ़ का ट्रेक कुछ ३-४ घंटे का है | १२ बज चुका था और हमारी अगली मंजिल थी रतनगढ़ |

यहाँ से एक छोटी सी नदी के किनारे किनारे थोडी दूर तक चलना था | लेकिन अब समझ नहीं आ रहा था की नदी के किस तरफ से जाना है | दोनों तरफ रास्ते थे | थोडी दूर चल कर एक घर दिखा | यहाँ से सही रास्ता पता चल गया | दरअसल हमको नदी को पार कर के फिर दायीं तरफ चलते जाना था | थोडा आगे चलने पर गाँव का एक लड़का मिल गया जो जंगल में गाय चराने आया था | उसके साथ थोडा उपर चढ़ने के बाद सीधा रास्ता मिल गया था | अब जंगलों से होते हुए चढाई वाला रास्ता था | करीब दो घंटे चलने के बाद एक जगह फाटा (जहाँ से दो रास्ते हो जाते हैं ) मिल गया | हमारे ज्ञान के मुताबिक ये दूसरा रास्ता हरिश्चन्द्रगढ़ जाता था जिसे हमको अगले दिन पकड़ना था | यहाँ पर कुछ और लोग मिले जो गाँव से किसी गाइड को ले कर आ रहे थे | उसने भी बता दिया कि यह हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए रास्ता था | हम सीधा उपर चल पड़े |

रतनगढ़ के लिए सीढियां :

करीब १ घंटा और चढ़ने के बाद हम रतन गढ़ के ठीक नीचे थे | यहाँ से सीधी चट्टान थी और इस पर लोहे ही सीढियां लगी हुई थी क्योंकि ऐसे चट्टान पर चढ़ना असंभव था | यहाँ अभिषेक की हालत ख़राब हो गई | इन सीढियों पर आधे के बाद रेलिंग नहीं थी और जो थी भी वो हिल रही थी | करीबन ३०-३० सीढियां दो जगह थी और उसके बीच का रास्ता चट्टान का खतरनाक रास्ता था | खैर अभिषेक को धीरे धीरे उपर चढाया और मैं दोबारा नीचे उतर कर उसका बैग ले के उपर गया | इसके बाद दूसरी सीढ़ी थी जो धीरे धीरे पार कर ली | इसके उपर का रास्ता चट्टान में बने छोटे छोटे खांचों पर चढ़ना था | थोडा सा चढ़ कर एक दरवाजा मिल गया | यहाँ से दायीं तरफ जा कर गुफाएं मिल जाती हैं |
हमारे पीछे पीछे गाइड भी बाकी लोगों को ले कर आ गया | पहली गुफा छोटी सी थी और इसमें मंदिर भी था | गाइड के कहने के मुताबिक हम चार लोग इसमें रुक गए और दूसरे लोग अगली बड़ी गुफा में |
अब रात में रुकने के लिए लकडी का इन्तेजाम करना था | हमारा मन था की रात भर आग जला के बैठेंगे क्योंकि छोटी पर रात में तेज़ हवाएं चलेंगी और ठंडा हो जायेगा | उनके साथ आया गाइड कहीं से थोडी लकडियाँ ले आया और हमको भी दे दी |
जैसा कि लोगों ने बताया था रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ का ट्रेक करीब १२ घंटे का है | सुबह जल्दी निकल कर शाम को ही पहुंचा जा सकता है और अगर रास्ता भटक गए तो फिर मुश्किल हो जायेगी | सामने के जंगल देख कर लग भी रहा था कि रास्ता भटकने की सम्भावना बहुत है | हमने इस गाइड से बात की तो उसने बताया की वो चलेगा परन्तु ७०० रूपये
लेगा | हमको थोडा ज्यादा लगा और हमारी बात नहीं बन पायी | फिर हमने अकेले ही जाने का निर्णय लिया | अब लकडी जलाई गई और गरमागरम चाय पीने के बाद समय था रतनगढ़ घूमने का |

रतनगढ़ में :
चाय पी कर मैं, सौरभ और मयंक उपर की तरफ चल पड़े | चूँकि बंदरों का भय था इसलिए दो दो करके जाना था | उपर बरसात के पानी को इकठ्ठा करने की टंकियां बनी हुई थी | यहाँ से पानी भर लिया जिससे रात में दुबारा न आना पड़े | रतनगढ़ में किले के कुछ अवशेष अभी भी बचे हुए हैं | उपर रास्ता बिलकुल चट्टान के किनारे पर है और सूखी हुई घास में कुछ खास नहीं दिख रहा था | संभल संभल कर ही चलना था | कहीं कुछ लकडियाँ दिख रही थी तो वो उठा ले रहे थे | बहुत दूर चलने के बाद अब हमें लगा कि आगे कुछ नहीं होगा इसलिए वापस आ गए |
गुफा में वापस आ कर कुछ देर बैठे और अब सूर्यास्त का समय होने लगा था | अब सौरभ गुफा में रुका और हम तीनो उपर की तरफ चल दिए | एक जगह बैठ कर सूर्यास्त के सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया |
जब इतनी ऊंचाई पर इतनी मेहनत से चढ़े हों तो फिर सामने के दृश्यों की सुन्दरता कुछ और ही लगती है | इतनी ऊंचाई से सामने के सुन्दर दृश्य और डूबता सूरज | अब पहाडी की दूसरी तरफ चल पड़े | अँधेरा होने लगा था लेकिन दूसरी तरफ कल्याण दरवाज़े तक जाना था | ये रास्ता भी बिलकुल किनारे पर था और हम गुफाओं के ठीक उपर चल रहे थे | अभिषेक के कहने पर हम लोगों ने वापस जाने का निर्णय लिया और गुफा में आ गए | गुफा के बाहर ही आग जलाई और अब खाना बनाने का कार्यक्रम शुरू करना था | पुलाव बनाने का सामान ले कर ही आये थे | मयंक शकरकंद भी ले कर आ गया था | कई सालों बाद आग में भूनी हुई शकरकंद खा कर तो सब तृप्त हो गए | करीब १० बजे स्वादिष्ट पुलाव खाया| अब बाहर ठंडा होने लगा था इसलिए गुफा के अन्दर ही आग जला ली | अब गुफा के अन्दर सोने का प्रबंध किया और अगले दिन के रोमांच और भय की कल्पना के साथ हंसते हंसाते सबको नींद आ गयी |

नोट : चूँकि एक साथ बहुत लम्बा वृत्तान्त हो जाएगा इसलिए अगले दो दिनों का वृत्तान्त अगले भाग में लिखूंगा |