मंगलवार, 17 मई 2011

कच्छ दर्शन : भाग २

आज की हमारी सुबह हुई तकरीबन ६ :३० पर और राजू भाई से ९ बजे मिलने कि बात हुई थी | मौसम थोडा सर्द था और कुछ ३-४ चाय पीने के बाद ठन्डे ठन्डे पानी से स्नान कर हम दोनों तैयार थे कच्छ दर्शन के लिए |

दरअसल हमारा विचार था कि आज सुबह सुबह जल्दी निकल कर हम ढोलावीरा में हड़प्पा कालीन सभ्यता के शहर को देखने पहुच जायेंगे और वहां से काला डोंगर होते हुए इंडिया ब्रिज पहुच कर वहां कहीं रात्रि विश्राम करेंगे | अगले दिन वहां से निकल कर सफ़ेद रण के किनारे किनारे हम भारत के आखिरी शहर लखपत तक जायेंगे और वहां से कोरी खाड़ी के किनारे किनारे नारायण सरोवर होते हुए वापस भुज पहुच जायेंगे | हमारी पुरानी योजना का नक्शा में नीचे लगा रहा हूँ |


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परन्तु हमारी योजना धर्मेश खत्री जी और राजू भाई से मिली जानकारी के बाद कुछ बदल गई | हमें पता चला की इस साल पकिस्तान में आई बाढ़ के कारण पानी बोर्डर के इस तरफ आ चुका है और ढोलावीरा से काला डोंगर को जोड़ने वाली सड़क पूरी डूब चुकी है | यह रण का दलदली इलाका था और यहाँ पर कोई भी खतरा नही लिया जा सकता था |
चूँकि हमारे पास समय भी कम था और ढोलावीरा भुज से करीब २५० किलोमीटर दूर था | इसका मतलब था एक पूरा दिन यहाँ जाने में बीत जाता |
खत्री जी की सलाह के मुताबिक हमने योजना में बदलाव किये और आज का दिन हम सफ़ेद रण , इंडिया ब्रिज , काला डोंगर और पाकिस्तान बोर्डर से लगे हुए कुछ गावों को देखने में बिताने का विचार बनाया | राजू भाई ने भी कहा कि घूमने में जल्दबाजी ना की जाए तो ज्यादा अच्छा रहेगा |

सुबह नाश्ता करने के बाद करीब ९ बजे हम भुज से चल पड़े | राजू भाई बहुत ही अच्छे तरीके से हमें पूरे कच्छ के बारे में जानकारियां दे रहे थे | भुज से निकल कर हमने खावड़ा जाने वाली सड़क पकड़ ली थी | इन दिनों रण उत्सव की तैयारियां जोरों पर थी और राजू भाई ने बताया कि अगले दिन से सफ़ेद रण में सिर्फ वही लोग जा पाएंगे जो कि रण उत्सव के लिए आये हों | आम पर्यटकों के लिए अगले कुछ दिन रण में जाना प्रतिबंधित था |

निरोणा  और पारंपरिक कलाएं :
इस सड़क को भी अभी रण उत्सव कि वजह से नया बनाया गया था और हम रफ़्तार से चले जा रहे थे | अचानक राजू भाई ने गाड़ी मुख्य मार्ग छोड़कर एक पतली सड़क पर ले ली | फिर उन्होंने बताया की अब हमको घुमाने की
उनकी जिम्मेदारी है और वो हमें अपने गाँव घुमाना चाहते थे | उनका गाँव निरोणा पर्यटकों में बहुत प्रसिद्द था | यहाँ की कुछ पारंपरिक कलाएं विश्व प्रसिद्द हैं | करीब १७ किलोमीटर इस सड़क पर चलने के बाद हम निरोणा गाँव में थे |
सबसे पहले राजू भाई हमें प्रसिद्द रोगन कला को दिखाने ले गये | दरअसल यह कच्छ की पारंपरिक कला है और अब इस गाँव में एक खत्री परिवार ही यह काम कर रहा है | कुछ वर्षों पहले इस परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद ख़राब थी परन्तु अभी सरकार के सहयोग से और पर्यटकों (खासकर विदेशी) में इसकी प्रसिद्धि से इनकी हालत
सही है | दरअसल ये लोग अरंडी के तेल में कुछ प्राकृतिक रंग मिला कर विशेष विधि से रंग तैयार करते हैं और फिर कपड़ों में पेंटिंग की जाती है | यह रंग इतना मजबूत होता है की कपडे के फटने से पहले ख़राब नही होता | इन्होंने हमें पूरी विधि को समझाया और हमारे सामने कुछ कपड़ों पर पेंटिंग बना के दिखाई | यह वास्तव में बहुत मेहनत और धैर्य का काम था | कुछ फोटो लगा रहा हूँ :





यहाँ से आगे निकलकर निरोणा गाँव में ही हम तांबे की घंटी बनाने वाले एक परिवार के घर पर थे | कुछ सालों पहले इनकी आजीविका का साधन मवेशियों के गले में बंधने वाली घंटियाँ बनाना था परन्तु अपने कुछ तरीकों से अब यह परिवार तरह तरह की संगीतमय धुन वाली घंटियाँ बनाने लगा था | कोई सरगम वाली तो कोई विशेष मधुर आवाजों वाली | यहाँ से हमने कुछ खरीददारी की फिर राजू भाई ने अपने घर से नाश्ते का कुछ सामान लिया और हम वापस खावड़ा की तरफ चल पड़े |
खावड़ा जाने से पहले ही एक जगह रूककर रण में प्रवेश करने के लिए पुलिस से अनुमति लेनी पड़ती है | कुछ दिनों पहले यह काम भुज में करवाना पड़ता था परन्तु अब पर्यटकों की सुविधा के लिए रास्ते में ही एक विशेष पुलिस चौकी बना दी गयी है | खत्री जी ने हमें पहले दिन ही कुछ फॉर्म दे दिए थे | अपने परिचय पत्र के साथ ये फॉर्म यहाँ जमा कर पुलिस के कुछ सवालों के जवाब दे कर हमें अनुमति मिल चुकी थी | राजू भाई को इस इलाके में अधिकतर लोग जानते ही थे तो कहीं खास परेशानी नही हुई |
अब हम बन्नी के प्रसिद्द घास के मैदान के पास से गुजर रहे थे जो इन दिनों सुन्दर फ्लेमिंगो और कई अन्य विदेशी पक्षियों के घर थे | दूर दूर तक फ्लेमिंगो के झुण्ड उड़ते हुए दिख रहे थे | सड़क एकदम सीधी सपाट थी और
दोनों तरफ सूखा रण शुरू हो चुका था | इसी बीच सड़क के एक किनारे पर कुछ उजड़ा सा गाँव दिखाई दिया | राजू भाई ने बताया की यह फिल्म "लगान" के गाँव का सेट है जिसे अब वन विभाग ने तार की बाड़ से घेर दिया है | लगान की अधिकतर शूटिंग यहीं पर हुई थी |
थोड़ी देर बाद हम खावड़ा में थे | दरअसल इस इलाके में खाने पीने का कुछ सामान नही मिलता | खावड़ा में कुछ दुकाने थी और यहाँ हमने चाय वगेरह पी ली | अब यहाँ से हमें काला डोंगर जाना था | काला डोंगर में प्रसिद्द दत्तात्रेय मंदिर है और राजू भाई ने फोन कर के मंदिर में दिन के भोजन का प्रबंध करवा दिया | अब खाने की कोई चिंता ना थी और हम काला डोंगर के लिए चल पड़े |
खावड़ा से कुछ आगे जाते ही काला डोंगर के लिए पहाडी रास्ता शुरू हो जाता है |  पहाडी घुमावदार सड़क पर सीधी चढ़ाई में खरामा खरामा गाड़ी चली जा रही थी और दूर दूर तक फैला हुआ रण विस्तार दिखने लगा था | करीब
आधे घंटे में हम खावड़ा से काला डोंगर पहुच गये | यहाँ मंदिर में दर्शन किये और उसके बाद पहाडी के उपर की तरफ चल दिए | यह बड़ा मंदिर था और यहाँ पर धर्मशाला भी हैं | साथ ही इस पहाडी के उपर सीमा सुरक्षा बल का बेस कैंप है | राजू भाई का सीमा सुरक्षा बल के लोगों के साथ भी परिचय था और कुछ देर उनके साथ बिताने के बाद हम उपर की तरफ चल पड़े | यहाँ से नीचे दूर तक रण का विस्तार दिखता है और उसी में कहीं भारत पाक बोर्डर भी है | रण
के बीच में जगह जगह सीमा सुरक्षा बल की चौकियां दिख रही थी | इन जगहों पर जाने के बाद ही एहसास होता है की सीमा पर कितनी विषम परिस्थितियों में यह जवान हमारी सुरक्षा के लिए डटे रहते हैं | इस भीषण गर्मी में नमक के रण के बीच में महीनो तक चौकन्ने रहना वास्तव में बहुत कठिन है |
यहाँ पर पर्यटकों के लिए कुछ बोर्ड लगे हुए थे जो अलग अलग दिशाओं में पर्यटन स्थलों की जानकारी दे रहे थे | कुछ देर यहाँ पर बैठे रहे और रण के बीच में भारत पाक सीमा और वहां तक जाने वाली सड़क खोजते रहे | यहाँ से इंडिया ब्रिज भी दिखाई दे रहा था और वापस मंदिर की तरफ आ कर हम चल पड़े इंडिया ब्रिज की तरफ |
काला डोंगर से नीचे उतर कर हम फिर उसी मुख्य मार्ग पर आ चुके थे | यह सड़क सीमा सुरक्षा बल के पास है और बहुत अच्छी स्थिति में है | इंडिया ब्रिज के पहले कुरण गाँव पड़ता है | यहाँ के लोगों की वेशभूषा देख कर लग रहा था कि हम बोर्डर के पास हैं | चूँकि यहाँ खेती करना तो नामुमकिन है इसलिए इन लोगों की आजीविका का मुख्य साधन गाय पलना और दूध बेचना ही है |
थोड़ी ही देर में हम इंडिया ब्रिज में थे | असैन्य नागरिकों के लिए इससे आगे जाना मना है | इसके आगे जाने के लिए सीमा सुरक्षा बल के भुज मुख्यालय से अनुमति लेनी पड़ती है | यहाँ से करीब ७० किलोमीटर दूर भारत पाक बोर्डर है | ना जाने क्यों इस जगह पर पहुच कर एक नया एहसास होने लगा था | एक अनूठा रोमांच, एक अलग सी ख़ुशी या ना जाने क्या | यहाँ पर सीमा सुरक्षा बल के कुछ जवान मुस्तैदी से खड़े थे | गाड़ी किनारे रोक कर हम उनमे से एक के साथ बैठ गये | उसने बड़े अच्छे तरीके से हमको यहाँ की जगहों के बारे में बताया | दूर तक सफ़ेद रण फैला हुआ था | ब्रिज के नीचे जा कर कुछ देर रण में घूमने के बाद वापस आकर हम फिर जवान के साथ बैठ गये | वो कुछ दिन पहले यहाँ से आगे की चौकी तक गया था और उसने हमें फ्लामिंगो और रण के बारे में बहुत कुछ बताया साथ ही फ्लामिंगो के अण्डों की एक फोटो दिखाई जिसे देख कर तो मज़ा ही आ गया | उसने बताया कि दूर दूर तक फैले नमक के मैदानों (रण) में फ्लेमिंगो टीले बनाते हैं और हर टीले पे एक अंडा | इस खूबसूरती को आप भी देखें और आनंद लें: 
 
 इस समय तो बस मन था कि काश हमारे पास एक और दिन होता तो हम भुज से आगे की अनुमति ले लेते और भारत की आखिरी चौकी तक जा पाते | खैर , अगली बार आने की योजना बना कर अब हम यहाँ से वापस हो लिए |
अगला ठिकाना था सफ़ेद रण विस्तार के बीच में ! इसके लिए हमें धोरदो गाव तक जाना था | यहाँ के लिए वापस इसी मार्ग पर खावड़ा से आगे तक आये और वहां से दूसरी सड़क पकड़ ली | २ दिन बाद रण उत्सव शुरू होना था और तैयारियां जोर शोर से चल रही थी | बहुत बड़े क्षेत्र में पर्यटकों के लिए टेंट ही टेंट लगे हुए थे | इससे थोडा और आगे चल कर हम रण तक पहुच चुके थे | यहाँ से आगे गाड़ी नही जा सकती थी और पैदल चलने में भी पैर धंस रहे थे | धीरे धीरे हम आगे चल पड़े | राजू भाई की सख्त हिदायत थी की हम ज्यादा दूर तक ना जाएँ क्युकी कहीं भी छुपा हुआ दलदल हो सकता है और हम मुश्किल में फंस सकते हैं | आराम आराम से टटोलकर नमक के उपर चलना पड़ रहा था | वास्तव में यह जगह तो बहुत खूबसूरत थी | चटकीली धूप और दूर दूर तक फैला सफ़ेद रण विस्तार | आप भी कुछ फोटो देखें :
 

 
 
 
अब यहाँ से वापसी की और रास्ते में होड़का गाव में बने हुए एक रेसोर्ट तक पहुच गये | हांलाकि हमारा मन नही था फिर भी राजू भाई ने कहा कि एक बार वहां भी घूम लेते हैं | यहाँ १० मिनट बिता कर हम वापस हो लिए | रास्ते में चाय पी और राजू भाई ने बताया कि अभी एक और जगह है जो हमें बड़ी पसंद आएगी | राजू भाई से अच्छी दोस्ती हो गई थी और वो बड़े अपनेपन से हमें घुमा रहे थे | अब तक वो हमारे बारे में जान भी चुके थे और शायद इसीलिए उन्होंने हमें उस जगह ले जाने का विचार बना लिया | उन्होंने बताया कि यह बहुत प्रसिद्द नही है पर हम लोगों को जरूर पसंद आएगी |

रुद्रमाता :
भुज से थोडा पहले ही हम मुख्य मार्ग से कट कर एक पतली सड़क पर आ गये | यह रुद्रमाता का मंदिर था और उसके पास एक पहाडी टीले के उपर जाना था | यहाँ पहुच कर तो वास्तव में हम दोनों ने राजू भाई को बहुत धन्यवाद दिया | सूर्यास्त का समय था और यहाँ पहुच कर मानो सारी थकान गायब | ज्यादा नही कहूँगा आप कुछ फोटो देखें और आनंद लें :
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अब समय था वापस भुज जाने का | आधे घंटे में हम वापस भुज पहुच गये | कमरे में जा कर तरो ताज़ा हुए और अब समय था भोजन का | आज का दिन बहुत खूबसूरत बीता था और ख़ुशी हम दोनों के चेहरे पर साफ़ दिख रही थी | सौरभ के मन में विचार आया कि आज कच्छ के नॉन वेज भोजन का आनंद लिया जाए | बस क्या था हमने बाहर निकल कर पता किया कि भुज में सबसे अच्छा नॉन वेज कहाँ मिलेगा और हम बाजारों से होते हुए पैदल पैदल चल पड़े | मैं अब उस रेस्तरां का नाम तो भूल गया हूँ पर खाना बेहद लजीज था | इसके बाद टहलते हुए वापस आ गये और अगले दिन कि तैयारी करने लगे |
समय मिलते ही तीसरे दिन की घुमक्कड़ी का अनुभव आपके साथ बांटूंगा ....तब तक के लिए अलविदा ....

----घुमन्तू

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कच्छ दर्शन : भाग १

इन दिनों व्यस्तता कुछ ज्यादा ही हो चुकी है ! घूमने फिरने या यूँ कहिये कि भटकते फिरने का समय ही नही मिल पा रहा | आज कुछ वक़्त मिला सोचा कि पिछले बचे हुए यात्रा वृत्तांतों में से एक का कुछ वर्णन लिख दिया जाए | क्या पता पुरानी यादों को समेटने से ही सही , घूमने का थोडा सा एहसास हो जाए |
तो इसी क्रम में  कुछ महीनो पहले गुजरात में कच्छ के रण की तीन दिन कि यात्रा को याद कर रहा हूँ | यात्रा शायद लम्बी हो गयी थी और वृत्तान्त लिखने में कोई जल्दबाजी ना हो इसलिए अलग अलग हिस्सों में प्रेषित करना पड़ेगा|

योजना :
फर्जी घुमक्कड़ नाम की हमारी परिकल्पित टोली के बहुत पुराने सदस्य मयंक जोशी जी के साथ कुछ ३ साल पहले से भुज और कच्छ के रण की एक यात्रा का विचार बन रहा था | फिर जोशी जी ने अपना ठिकाना बदल दिया और हम भी इस बात को भूल गये | कुछ दिन पहले अचानक मेरे दिमाग में ये बात आई और मैंने सौरभ से इस बारे में बात की | दरअसल हमने छोटे कच्छ के रण (अहमदाबाद के पास) घूमने की योजना बनाई क्योंकि हमारे पास तीन दिन का ही समय था | अब समय था ट्रेन के आरक्षण की स्थिति पता करने का | पता चला कि अहमदाबाद जाने के लिए तो आरक्षण उपलब्ध ही नही था और भुज के लिए आरक्षण मिल रहा था | हमने थोडा सा मस्तिष्क मंथन किया और ऑफिस से एक दिन की छुट्टी ले कर ४ दिन की कच्छ के रण की यात्रा की योजना बना डाली |
योजना यह बनी कि भुज एक्सप्रेस पकड़ कर ऑफिस के बाद मुंबई से निकला जायेगा और ३ दिन में प्रयास रहेगा कि येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा कच्छ घूम लिया जायेगा | थोड़ी बहुत जानकारी इन्टरनेट के माध्यम से मिली और पता चला कि भुज में मोटर साइकिल किराये पे ली जा सकती है | बस अब क्या था हमने अपना झोला बाँधा और हम तैयार थे कच्छ के रण के लिए |

मुंबई से भुज :
मुंबई से भुज जाने के लिए दो ट्रेन हैं : कच्छ एक्सप्रेस और बान्द्रा भुज एक्सप्रेस. हमें कच्छ एक्सप्रेस में आरक्षण मिल गया था और हम शाम को ऑफिस की छुट्टी के बाद बोरीवली स्टेशन के लिए निकल पड़े | कच्छ एक्सप्रेस बोरीवली से शाम ५:४५ पर निकलती है और अगले दिन सुबह ९:३० पर भुज पहुचती है | ट्रेन समय पर थी और हम भी | हम दोनों ट्रेन में सवार हो चुके थे और ट्रेन में अधिकतर गुजरती परिवार बैठे हुए थे | खरामा खरामा ट्रेन चली जा रही थी और कुछ ना कुछ खाते खाते हमारा सफ़र भी शुरू हो गया था |
वड़ोदरा में पूरी सब्जी और वड़ा पाव खाने के बाद अब समय था सोने का| 
सुबह मौसम हल्का सा ठंडा था और समाख्याली स्टेशन पर हमारी नींद खुली | यहाँ पर कुछ देर ट्रेन रुकी और बाहर निकल कर स्टेशन पर थोड़ी चहलकदमी करते हुए सुबह का आनंद लिया | सौरभ फिर से सो गया था | मैं अपनी आदत से मजबूर उसको उठाने की कोशिश में लगा रहा | ये मेरे लिए नयी जगह थी और ऐसे में खिड़की से बाहर नयी नही जगहें देखते हुए मेरा समय अच्छा कट रहा था |
इसके आगे बचाऊ , गाँधीधाम , अंजर होते हुए करीब १० बजे हम भुज स्टेशन पर थे | आखिरी स्टेशन होने की वजह से यहाँ कुछ ही ट्रेन आती हैं और स्टेशन सुनसान सा ही था | स्टेशन से बाहर निकल कर चाय पी और साथ में स्वादिस्ट फाफड़े का लुत्फ़ उठाया |

भुज में पहला दिन : 
स्टेशन से ४० रूपये में ऑटो मिल गया और हम राज्य परिवहन के बस स्टैंड पर पहुच गये | हमारे पास तीन ही दिन थे और योजना के मुताबिक आज का दिन हमें भुज की स्थानीय जगहें देखने में बिताना था | अगला काम था कोई सस्ता और टिकाऊ होटल खोजने का | थोडा आगे चल कर एक सागर गेस्ट हाउस दिखा जिसकी हालत देख कर लग रहा था की यह ज्यादा महँगा नही होगा | यहाँ पर २५० रूपये मात्र में ठीकठाक कमरा मिल गया |
इन्टरनेट से जानकारी मिली थी की भुज में कच्छ टूरिज्म का ऑफिस बस स्टेशन के सामने ही है | हमने सोचा था की शायद यह गुजरात टूरिज्म का सरकारी ऑफिस होगा | बस स्टेशन के सामने ही यह ऑफिस था और यहाँ जा कर पता चला कि यह तो प्राइवेट है | यहाँ के मालिक धर्मेश खत्री जी ने बहुत अच्छे से हमें जानकारी दी और साथ में समय के हिसाब से हमारा प्लान बनाने में बहुत मदद की | यहाँ से हमने एक टाटा इंडिका किराये पर ले ली और तीनो दिनों का प्लान बना लिया | चूँकि हमारा लक्ष्य हमेशा कम से कम खर्च पर घूमने का होता है तो अभी तक सब कुछ सस्ता ही लग रहा था | धर्मेश जी ने ड्राईवर और गाइड राजू भाई से मिलवा दिया जो दो दिन बाद हमारे बहुत अच्छे दोस्त भी बन गये |

आज के दिन की घुमक्कड़ी की शुरुवात राजू भाई के साथ एक कप चाय से हुई और फिर हम सीधे जा पहुचे प्रागमहल और आइना महल देखने |   यहाँ तक जाने के लिए पुराने भुज शहर से हो कर जाना था और राजू भाई हमको बता रहे थे कि २००१ में कच्छ में आये विनाशकारी भूकंप से यह इलाका कितना प्रभावित हुआ था | यहाँ पर अधिकतर घर नए बने हुए थे और कहीं कहीं कुछ टूटे हुए घर भी दिख रहे थे |

प्रागमहल / आइना महल : 
 
प्रागमहल उन्नीसवी सदी में बना हुआ सुन्दर महल है | इसका निर्माण १८६५ में राव प्रागमल जी ने करवाया था और कर्नल हनेरी सेंट विल्किंस ने इतावली गोथिक शैली में इसे डिजाईन किया था | 
भव्य ईमारत के अन्दर प्रवेश करते ही इसके इतिहास का वर्णन है | यहाँ से उपर चढ़ कर जाने पर आइना महल मिलता है | विशाल दरवार हॉल को देख कर याद आया कि यहाँ पर तो हिंदी फिल्म "लगान" के दृश्य शूट किये गये थे | इस हाल में दीवारों पर बड़े बड़े आईने इस तरीके से लगे हुए हैं कि इनमे पूरे हाल को देखा जा सकता है |


भूकंप में इस महल का कुछ हिस्सा भी क्षतिग्रस्त हो गया था | कुछ भागों कि मरम्मत हो चुकी है और बाकी कुछ हिस्से इन दिनों पर्यटकों के लिए बंद हैं |

इसके बाद हमने रुख किया क्लोक टावर (घंटाघर) कि तरफ| इस हिस्से को भूकंप से ज्यादा नुकसान नही हुआ था और संकरी सीढ़ियों से होते हुए हम उपर पहुच गये | यहाँ पर घडी को चलाने के लिए बड़े बड़े पेंडुलम और उनपर लोहे क्र भार बांधे हुए हैं | साथ ही बड़ी बड़ी घंटियाँ भी समय बताने के लिए लगी हुई हैं | यह प्रणाली वाकई बहुत सुन्दर थी और हमने कुछ समय इस भव्य प्रणाली को समझने में बिताया |

टावर के उपर से लगभग पूरा भुज शहर दिखता है और यहाँ पर सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया और फोटोग्राफी करने के बाद हम वापस नीचे उतर गये |
अब हमारा विचार था कच्छ संग्रहालय को देखने का परन्तु इस समय यह पर्यटकों के लिए बंद था | चूँकि हमारी योजना जल्दी जल्दी घूमने की थी इसलिए हम आगे बढ़ चले |  अब तक भूख भी लग चुकी थी और कच्छी भोजन का स्वाद भी लेना था | राजू भाई ने हमें एक अच्छे रेस्तरां में पंहुचा दिया और वो अपने भोजन के लिए घर चले गये |
यहाँ पर हमने गुजराती थाली मंगवाई और जब वेटर ने जब पूछा कि सर क्या क्या लेंगे तो हमारा जवाब था जो जो हो सके वो दे दो | थाली को देख कर हम चौंक गये और फिर तो याद भी नही कितना खाया ! शायद इस फोटो से आप लजीज खाने और हमारे मुह के पानी का अंदाजा लगा पायें |


अब तक राजू भाई भी आ चुके थे और अगला ठिकाना था मांडवी |

मांडवी : 
 
भुज से ५६ किलोमीटर दूर मांडवी कभी एक प्रमुख बंदरगाह हुआ करता था परन्तु अब यहाँ पर जहाजों का निर्माण होता है | यहाँ आने वाले लोग जहाजों की कार्यशाला को जरूर देखते हैं | राजू भाई भी सबसे पहले हमें यहाँ ले गये | यह इलाका थोडा गन्दा था परन्तु बड़े बड़े जहाजों को बनते देखना भी अच्छा अनुभव था | यहाँ थोडा समय बिताकर अब हम चल पड़े विजय विलास पेलेस की तरफ |



विजय विलास पेलेस :

मांडवी का मुख्य आकर्षण विजय विलास पेलेस है | यह हरे भरे बाग़ बगीचों के बीच में राजस्थानी शैली में बना हुआ बहुत सुन्दर महल है | आज भी यहाँ राजाओं के वंशज रहते हैं और बाकी हिस्सा पर्यटकों के लिए खुला हुआ है | भारतीय गणतंत्र में शामिल होने के बाद शायद यहाँ का प्रवेश शुल्क ही राजा के वंशज के जीविकोपार्जन का एक साधन है |

भव्य महल के उपर चढ़कर भी किसी फिल्म की याद आने लगी थी | बाद में नीचे उतरकर फोटो देखने पर पता चला की महल की छत  पर तो "हम दिल दे चुके सनम " के कुछ दृश्य थे | आप भी कुछ फोटो देखें और आनंद उठायें :

इंडिया हाउस: 
 
यहाँ से बाहर निकल कर राजू भाई हमें एक नयी बनी जगह इंडिया हाउस ले गये | यहाँ के स्वतन्त्रता संग्राम  श्यामजी कृष्ण वर्मा की याद में यह स्मारक बना हुआ है | श्यामजी वर्मा ने इंग्लॅण्ड में इंडिया हाउस बनाया था और वहां से वो क्रांति की योजनाओं को अंजाम देते थे | उसी इंडिया हाउस के जैसा बना हुआ यह स्मारक भी बहुत सुन्दर है | साथ ही यहाँ पर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम पर लिखी हुई  पुस्तकों का बहुत बड़ा संग्रह है |
 
अब सूर्यास्त का समय हो रहा था और सूर्यास्त के लिए मांडवी बीच से अच्छी जगह और क्या हो सकती थी | अब हम सीधे मांडवी बीच पहुच गये | यहाँ पर चाय पी और फिर निकल पड़े बीच की सैर के लिए |
मांडवी बीच में पानी बहुत स्वच्छ था और बहुत से पर्यटक भी थे | यहाँ पर कुछ विंड मिल्स भी हैं | इन दिनों पूरा कच्छ विदेशों से आये हुए पक्षियों से भरा रहता है | हम दोनों सैर करते हुए बहुत दूर तक निकल गये थे और सूर्यास्त के सुन्दर दृश्यों का भरपूर आनंद ले रहे थे | कैमरे में कैद कुछ दृश्यों का आप भी लुत्फ़ उठायें |






सूर्यास्त के बाद मांडवी से वापस भुज की तरफ आ गये और फिर भोजन के बाद अगले दिन की योजना बनाते हुए पता नही कब सो गये | शीघ्र ही समय मिलते ही आगे का वृत्तान्त लिखूंगा ! तब तक के लिए अलविदा ...