सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कच्छ दर्शन : भाग १

इन दिनों व्यस्तता कुछ ज्यादा ही हो चुकी है ! घूमने फिरने या यूँ कहिये कि भटकते फिरने का समय ही नही मिल पा रहा | आज कुछ वक़्त मिला सोचा कि पिछले बचे हुए यात्रा वृत्तांतों में से एक का कुछ वर्णन लिख दिया जाए | क्या पता पुरानी यादों को समेटने से ही सही , घूमने का थोडा सा एहसास हो जाए |
तो इसी क्रम में  कुछ महीनो पहले गुजरात में कच्छ के रण की तीन दिन कि यात्रा को याद कर रहा हूँ | यात्रा शायद लम्बी हो गयी थी और वृत्तान्त लिखने में कोई जल्दबाजी ना हो इसलिए अलग अलग हिस्सों में प्रेषित करना पड़ेगा|

योजना :
फर्जी घुमक्कड़ नाम की हमारी परिकल्पित टोली के बहुत पुराने सदस्य मयंक जोशी जी के साथ कुछ ३ साल पहले से भुज और कच्छ के रण की एक यात्रा का विचार बन रहा था | फिर जोशी जी ने अपना ठिकाना बदल दिया और हम भी इस बात को भूल गये | कुछ दिन पहले अचानक मेरे दिमाग में ये बात आई और मैंने सौरभ से इस बारे में बात की | दरअसल हमने छोटे कच्छ के रण (अहमदाबाद के पास) घूमने की योजना बनाई क्योंकि हमारे पास तीन दिन का ही समय था | अब समय था ट्रेन के आरक्षण की स्थिति पता करने का | पता चला कि अहमदाबाद जाने के लिए तो आरक्षण उपलब्ध ही नही था और भुज के लिए आरक्षण मिल रहा था | हमने थोडा सा मस्तिष्क मंथन किया और ऑफिस से एक दिन की छुट्टी ले कर ४ दिन की कच्छ के रण की यात्रा की योजना बना डाली |
योजना यह बनी कि भुज एक्सप्रेस पकड़ कर ऑफिस के बाद मुंबई से निकला जायेगा और ३ दिन में प्रयास रहेगा कि येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा कच्छ घूम लिया जायेगा | थोड़ी बहुत जानकारी इन्टरनेट के माध्यम से मिली और पता चला कि भुज में मोटर साइकिल किराये पे ली जा सकती है | बस अब क्या था हमने अपना झोला बाँधा और हम तैयार थे कच्छ के रण के लिए |

मुंबई से भुज :
मुंबई से भुज जाने के लिए दो ट्रेन हैं : कच्छ एक्सप्रेस और बान्द्रा भुज एक्सप्रेस. हमें कच्छ एक्सप्रेस में आरक्षण मिल गया था और हम शाम को ऑफिस की छुट्टी के बाद बोरीवली स्टेशन के लिए निकल पड़े | कच्छ एक्सप्रेस बोरीवली से शाम ५:४५ पर निकलती है और अगले दिन सुबह ९:३० पर भुज पहुचती है | ट्रेन समय पर थी और हम भी | हम दोनों ट्रेन में सवार हो चुके थे और ट्रेन में अधिकतर गुजरती परिवार बैठे हुए थे | खरामा खरामा ट्रेन चली जा रही थी और कुछ ना कुछ खाते खाते हमारा सफ़र भी शुरू हो गया था |
वड़ोदरा में पूरी सब्जी और वड़ा पाव खाने के बाद अब समय था सोने का| 
सुबह मौसम हल्का सा ठंडा था और समाख्याली स्टेशन पर हमारी नींद खुली | यहाँ पर कुछ देर ट्रेन रुकी और बाहर निकल कर स्टेशन पर थोड़ी चहलकदमी करते हुए सुबह का आनंद लिया | सौरभ फिर से सो गया था | मैं अपनी आदत से मजबूर उसको उठाने की कोशिश में लगा रहा | ये मेरे लिए नयी जगह थी और ऐसे में खिड़की से बाहर नयी नही जगहें देखते हुए मेरा समय अच्छा कट रहा था |
इसके आगे बचाऊ , गाँधीधाम , अंजर होते हुए करीब १० बजे हम भुज स्टेशन पर थे | आखिरी स्टेशन होने की वजह से यहाँ कुछ ही ट्रेन आती हैं और स्टेशन सुनसान सा ही था | स्टेशन से बाहर निकल कर चाय पी और साथ में स्वादिस्ट फाफड़े का लुत्फ़ उठाया |

भुज में पहला दिन : 
स्टेशन से ४० रूपये में ऑटो मिल गया और हम राज्य परिवहन के बस स्टैंड पर पहुच गये | हमारे पास तीन ही दिन थे और योजना के मुताबिक आज का दिन हमें भुज की स्थानीय जगहें देखने में बिताना था | अगला काम था कोई सस्ता और टिकाऊ होटल खोजने का | थोडा आगे चल कर एक सागर गेस्ट हाउस दिखा जिसकी हालत देख कर लग रहा था की यह ज्यादा महँगा नही होगा | यहाँ पर २५० रूपये मात्र में ठीकठाक कमरा मिल गया |
इन्टरनेट से जानकारी मिली थी की भुज में कच्छ टूरिज्म का ऑफिस बस स्टेशन के सामने ही है | हमने सोचा था की शायद यह गुजरात टूरिज्म का सरकारी ऑफिस होगा | बस स्टेशन के सामने ही यह ऑफिस था और यहाँ जा कर पता चला कि यह तो प्राइवेट है | यहाँ के मालिक धर्मेश खत्री जी ने बहुत अच्छे से हमें जानकारी दी और साथ में समय के हिसाब से हमारा प्लान बनाने में बहुत मदद की | यहाँ से हमने एक टाटा इंडिका किराये पर ले ली और तीनो दिनों का प्लान बना लिया | चूँकि हमारा लक्ष्य हमेशा कम से कम खर्च पर घूमने का होता है तो अभी तक सब कुछ सस्ता ही लग रहा था | धर्मेश जी ने ड्राईवर और गाइड राजू भाई से मिलवा दिया जो दो दिन बाद हमारे बहुत अच्छे दोस्त भी बन गये |

आज के दिन की घुमक्कड़ी की शुरुवात राजू भाई के साथ एक कप चाय से हुई और फिर हम सीधे जा पहुचे प्रागमहल और आइना महल देखने |   यहाँ तक जाने के लिए पुराने भुज शहर से हो कर जाना था और राजू भाई हमको बता रहे थे कि २००१ में कच्छ में आये विनाशकारी भूकंप से यह इलाका कितना प्रभावित हुआ था | यहाँ पर अधिकतर घर नए बने हुए थे और कहीं कहीं कुछ टूटे हुए घर भी दिख रहे थे |

प्रागमहल / आइना महल : 
 
प्रागमहल उन्नीसवी सदी में बना हुआ सुन्दर महल है | इसका निर्माण १८६५ में राव प्रागमल जी ने करवाया था और कर्नल हनेरी सेंट विल्किंस ने इतावली गोथिक शैली में इसे डिजाईन किया था | 
भव्य ईमारत के अन्दर प्रवेश करते ही इसके इतिहास का वर्णन है | यहाँ से उपर चढ़ कर जाने पर आइना महल मिलता है | विशाल दरवार हॉल को देख कर याद आया कि यहाँ पर तो हिंदी फिल्म "लगान" के दृश्य शूट किये गये थे | इस हाल में दीवारों पर बड़े बड़े आईने इस तरीके से लगे हुए हैं कि इनमे पूरे हाल को देखा जा सकता है |


भूकंप में इस महल का कुछ हिस्सा भी क्षतिग्रस्त हो गया था | कुछ भागों कि मरम्मत हो चुकी है और बाकी कुछ हिस्से इन दिनों पर्यटकों के लिए बंद हैं |

इसके बाद हमने रुख किया क्लोक टावर (घंटाघर) कि तरफ| इस हिस्से को भूकंप से ज्यादा नुकसान नही हुआ था और संकरी सीढ़ियों से होते हुए हम उपर पहुच गये | यहाँ पर घडी को चलाने के लिए बड़े बड़े पेंडुलम और उनपर लोहे क्र भार बांधे हुए हैं | साथ ही बड़ी बड़ी घंटियाँ भी समय बताने के लिए लगी हुई हैं | यह प्रणाली वाकई बहुत सुन्दर थी और हमने कुछ समय इस भव्य प्रणाली को समझने में बिताया |

टावर के उपर से लगभग पूरा भुज शहर दिखता है और यहाँ पर सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया और फोटोग्राफी करने के बाद हम वापस नीचे उतर गये |
अब हमारा विचार था कच्छ संग्रहालय को देखने का परन्तु इस समय यह पर्यटकों के लिए बंद था | चूँकि हमारी योजना जल्दी जल्दी घूमने की थी इसलिए हम आगे बढ़ चले |  अब तक भूख भी लग चुकी थी और कच्छी भोजन का स्वाद भी लेना था | राजू भाई ने हमें एक अच्छे रेस्तरां में पंहुचा दिया और वो अपने भोजन के लिए घर चले गये |
यहाँ पर हमने गुजराती थाली मंगवाई और जब वेटर ने जब पूछा कि सर क्या क्या लेंगे तो हमारा जवाब था जो जो हो सके वो दे दो | थाली को देख कर हम चौंक गये और फिर तो याद भी नही कितना खाया ! शायद इस फोटो से आप लजीज खाने और हमारे मुह के पानी का अंदाजा लगा पायें |


अब तक राजू भाई भी आ चुके थे और अगला ठिकाना था मांडवी |

मांडवी : 
 
भुज से ५६ किलोमीटर दूर मांडवी कभी एक प्रमुख बंदरगाह हुआ करता था परन्तु अब यहाँ पर जहाजों का निर्माण होता है | यहाँ आने वाले लोग जहाजों की कार्यशाला को जरूर देखते हैं | राजू भाई भी सबसे पहले हमें यहाँ ले गये | यह इलाका थोडा गन्दा था परन्तु बड़े बड़े जहाजों को बनते देखना भी अच्छा अनुभव था | यहाँ थोडा समय बिताकर अब हम चल पड़े विजय विलास पेलेस की तरफ |



विजय विलास पेलेस :

मांडवी का मुख्य आकर्षण विजय विलास पेलेस है | यह हरे भरे बाग़ बगीचों के बीच में राजस्थानी शैली में बना हुआ बहुत सुन्दर महल है | आज भी यहाँ राजाओं के वंशज रहते हैं और बाकी हिस्सा पर्यटकों के लिए खुला हुआ है | भारतीय गणतंत्र में शामिल होने के बाद शायद यहाँ का प्रवेश शुल्क ही राजा के वंशज के जीविकोपार्जन का एक साधन है |

भव्य महल के उपर चढ़कर भी किसी फिल्म की याद आने लगी थी | बाद में नीचे उतरकर फोटो देखने पर पता चला की महल की छत  पर तो "हम दिल दे चुके सनम " के कुछ दृश्य थे | आप भी कुछ फोटो देखें और आनंद उठायें :

इंडिया हाउस: 
 
यहाँ से बाहर निकल कर राजू भाई हमें एक नयी बनी जगह इंडिया हाउस ले गये | यहाँ के स्वतन्त्रता संग्राम  श्यामजी कृष्ण वर्मा की याद में यह स्मारक बना हुआ है | श्यामजी वर्मा ने इंग्लॅण्ड में इंडिया हाउस बनाया था और वहां से वो क्रांति की योजनाओं को अंजाम देते थे | उसी इंडिया हाउस के जैसा बना हुआ यह स्मारक भी बहुत सुन्दर है | साथ ही यहाँ पर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम पर लिखी हुई  पुस्तकों का बहुत बड़ा संग्रह है |
 
अब सूर्यास्त का समय हो रहा था और सूर्यास्त के लिए मांडवी बीच से अच्छी जगह और क्या हो सकती थी | अब हम सीधे मांडवी बीच पहुच गये | यहाँ पर चाय पी और फिर निकल पड़े बीच की सैर के लिए |
मांडवी बीच में पानी बहुत स्वच्छ था और बहुत से पर्यटक भी थे | यहाँ पर कुछ विंड मिल्स भी हैं | इन दिनों पूरा कच्छ विदेशों से आये हुए पक्षियों से भरा रहता है | हम दोनों सैर करते हुए बहुत दूर तक निकल गये थे और सूर्यास्त के सुन्दर दृश्यों का भरपूर आनंद ले रहे थे | कैमरे में कैद कुछ दृश्यों का आप भी लुत्फ़ उठायें |






सूर्यास्त के बाद मांडवी से वापस भुज की तरफ आ गये और फिर भोजन के बाद अगले दिन की योजना बनाते हुए पता नही कब सो गये | शीघ्र ही समय मिलते ही आगे का वृत्तान्त लिखूंगा ! तब तक के लिए अलविदा ...